कुमारगुप्त प्रथम के जीवन की घटनाओं और उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए

कुमारगुप्त प्रथम के जीवन तथा घटनाएँ

चंद्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम गुप्त साम्राज्य की सिंहासन पर बैठा. उसकी माता का नाम ध्रुवदेवी था. चंद्रगुप्त की सांची अभिलेख से प्राप्त अंतिम तिथि 412 ई. है तथा कुमारगुप्त का प्रथम ज्ञात स्थित 415 ई. है. कुमारगुप्त प्रथम की तिथि की जानकारी विलसद अभिलेख से होती है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकार कुमारगुप्त 412 ई. और 415 ई. के मध्य शासक बना होगा. कुमारगुप्त प्रथम की चांदी की मुद्राओं से ज्ञात अंतिम तिथि 455 ई. है. इससे यह स्पष्ट है कि कुमार गुप्त ने 413 ई. से 455 ई. तक शासन किया था.

कुमारगुप्त प्रथम के जीवन तथा घटनाएँ

कुमारगुप्त के अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि उसके शासन काल के प्रारंभिक व शांतिपूर्वक व्यतीत हुए. कुमारगुप्त प्रथम को अपने पिता से एक विस्तृत साम्राज्य प्राप्त हुआ था. अतः वह साम्राज्य विस्तार की ओर ध्यान न देकर उसने अपने शासनकाल में साम्राज्य के साधनों का प्रयोग सार्वजनिक एवं धार्मिक क्रियाकलापों कुशलतापूर्वक किया. विलसद के अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में उसके साम्राज्य में चारों ओर सुख और शांति का वातावरण था.

कुमारगुप्त प्रथम की उपलब्धियां

1. पुष्यमित्रों से युद्ध

स्कंदगुप्त के भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम के शासन काल के अंतिम चरण शांतिपूर्ण न था. इस अभिलेख के अनुसार उसके शासनकाल के अंतिम दिनों में पुष्यमित्रों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया. इस अभिलेख के अनुसार इस आक्रमण के कारण कुल की राजलक्ष्मी विचलित हो उठी. इस समय तक कुमारगुप्त प्रथम काफी वृद्ध हो चुके थे. अतः इस स्थिति को संभालने में कुमारगुप्त के पुत्र स्कंदगुप्त को कठोर प्रयास करना पड़ा. उसे पुष्यमित्रों के आक्रमण से साम्राज्य की रक्षा करने के लिए उसे पूरी रात्रि युद्ध भूमि में ही व्यतीत करनी पड़ी. भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्रों की सैन्य शक्ति काफी मजबूत थी और उनके हथियार काफी विकसित थे. अत: उन से टक्कर लेना एक दुष्कर कार्य था. इसी कारण इस लेख में तीन बार गुप्तों की रानी लक्ष्मी के विचलित होने का उल्लेख है. इससे पुष्यमित्रों के आक्रमण की तीव्रता का अनुमान किया जा सकता है. पुष्यमित्रों के खिलाफ युद्ध का संचालन उसका पुत्र स्कंदगुप्त ने किया तथा पुष्यमित्र जैसे शक्तिशाली एवं भयंकर आक्रमणकारियों को परास्त कर उसने अपनी योग्यता एवं शक्ति को प्रदर्शित किया.  स्कंदगुप्त की यह विजय गुप्त साम्राज्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी क्योंकि इस वजह से पुष्यमित्रों ने भय और आतंक की जो स्थिति उत्पन्न की थी, वह खत्म हो गया और गुप्त साम्राज्य पतन होने से बच गया.

कुमारगुप्त प्रथम के जीवन तथा घटनाएँ

2. दक्षिणी अभियान

कुछ इतिहासकारों को मानना है कि कुमारगुप्त प्रथम ने भी समुद्रगुप्त के समान ही दक्षिण भारत का अभियान किया था. इस मत के समर्थन में ये विद्वान सतारा जिले से प्राप्त 1395 मुद्राओं और एलिचपुर से प्राप्त 13 मुद्राओं का सहारा लेते हैं. इसके अतिरिक्त उनकी कुछ मुद्राओं पर व्याघ्र-बल-पराक्रम लिखा है, जिससे उपरोक्त विद्वान यह अनुमान लगाते हैं कि कुमार गुप्त ने नर्मदा नदी को पार कर व्याघ्र-युक्त अरण्य-क्षेत्र पर अधिकार करने का प्रयास किया था. परंतु इन स्रोतों के आधार पर किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन है क्योंकि संभव है कि सतारा और एलिचपुर से प्राप्त मुद्राएं व्यापारिक संबंधों के कारण वहां पहुंची होंगी. इसके अतिरिक्त यदि कुमार गुप्त ने दक्षिणी अभियान भी किया था तो उनको विजय हुई अथवा नहीं इस विषय में कोई प्रमाण नहीं मिलता.

3. अश्वमेध यज्ञ

कुमारगुप्त प्रथम ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था. हालंकि उसके इस यज्ञ के विषय में उसके किसी अभिलेख में वर्णन नहीं मिलता है, किंतु उनकी मुद्राओं से इसकी पुष्टि होती है. उनके इन अश्वमेध-प्रकार की मुद्राओं के मुख भाग पर सुसज्जित यज्ञ के अश्व और सम्राट का नाम उत्कीर्ण किया गया है. मुद्रा के दूसरी ओर कुमारगुप्त प्रथम की उपाधि अश्वमेधमहेंद्र लिखी हुई है. यह अश्वमेध यज्ञ किस विजय के उपलक्ष में किया गया था यह स्पष्ट नहीं है.  डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार यह यज्ञ असम विजय के पश्चात किया गया था. किंतु इस मत पर विश्वास करना कठिन है क्योंकि डॉ. मुखर्जी के तर्क में कोई दम नहीं है तथा असम पर कुमारगुप्त का अधिकार होने का दावा विवादास्पद है.

कुमारगुप्त प्रथम के जीवन तथा घटनाएँ

4. धार्मिक सहिष्णुता एवं जनहित के कार्य

कुमारगुप्त प्रथम वैष्णव धर्म का अनुयायी था, किंतु उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति का पालन किया. उसके शासनकाल में लोग विष्णु, शिवजी, शक्ति, कार्तिकेय, सूर्य बुद्ध और जिन आदि देवी-देवताओं की उपासना करते थे. कुमारगुप्त की कार्तिकेय मुद्राओं पर एक ओर मोर तो दूसरी ओर मोर को दाना देते हुए राजा का चित्र उत्कीर्ण किया गया है. यह उसके धार्मिक सहिष्णुता को प्रमाणित करता है. उसकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति के कारण उसके काल में अन्य धर्मों के भी प्रगति हुई. ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि बौद्धों के प्रति कुमारगुप्त प्रथम का व्यवहार सौहार्दपूर्ण था.  उसके शासनकाल में महात्मा बुद्ध की एक मूर्ति नालंदा में और एक मूर्ति बौद्ध विहार में स्थापना हुई थी. करमदण्डा के लेख में कुमारगुप्त द्वारा शिवजी की प्रतिमा स्थापित किए जाने का उल्लेख मिलता है. मंदसौर के लेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के शासनकाल में एक भव्य सूर्य मंदिर का निर्माण किया गया था. इस प्रकार स्पष्ट है कि उसके राज्य में महात्मा बुद्ध, शिवजी तथा सूर्य की पूजा स्वतंत्र रूप से की जाती थी और कुमारगुप्त का प्रत्येक धर्म के प्रति व्यवहार एक समान था.

कुमारगुप्त प्रथम के जीवन तथा घटनाएँ

कुमारगुप्त के शासनकाल में अनेक महत्वपूर्ण जनहित के कार्य किए गए. कुमारगुप्त के अभिलेखों में उसके द्वारा की गई विभिन्न दानों का उल्लेख मिलता है. इन लेखों में यह भी लिखा हुआ है कि दान में दी गई भूमि का हरण करने वाले व्यक्ति को घोर नरक की यातना सहनी पड़ती थी.

5. साम्राज्य विस्तार

कुमारगुप्त प्रथम को पैतृक संपत्ति के रूप में अपने पिता का विस्तृत साम्राज्य मिला था. कुमारगुप्त प्रतापी शासक और महान योद्धा न थे. अतः पैतृक रूप से प्राप्त साम्राज्य का विस्तार न कर सका. किंतु फिर भी वह अपने विशाल साम्राज्य को अक्षुण्ण रखने में सफल रहा. कुमारगुप्त के शासनकाल के अंतिम चरण में गुप्त साम्राज्य पर पुष्यमित्रों ने आक्रमण किया, किंतु कुमारगुप्त ने अपने साम्राज्य को विघटित न होने दिया. करमदण्डा आलेख में कुमारगुप्त के राज्य विस्तार का वर्णन करते हुए कहा गया है कि कुमारगुप्त विशाल साम्राज्य पर शासन करता था, जो उत्तर में सुमेरु व कैलाश पर्वतों से, दक्षिण में विन्ध्य वनों तक तथा पूर्व व पश्चिम में सागरों के बीच फैला हुआ था. इनके बीच में उनका राज्य में मेखला की भांति झूम रहा था. मंदसौर अभिलेख के अनुसार कुमारगुप्त संपूर्ण पृथ्वी का शासक था जो चारों ओर समुद्र से घिरी हुई थी. कुमारगुप्त की मुद्राओं का भी भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त होना उसके विशाल साम्राज्य का द्योतक है. इस प्रकार कुमारगुप्त का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पूर्व में बंगाल से पश्चिम में सौराष्ट्र तक विस्तृत था.

मूल्यांकन

कुमारगुप्त प्रथम का शासन काल एक वैभवशाली काल था. इस काल में गुप्तों का सम्मान पूर्ववत् विद्यमान रहा. डांडेकर ने लिखा है कि यद्यपि कुमारगुप्त प्रथम ने अपनी तुलना देवताओं के सेनानायक से की है  किंतु वह न तो समुद्रगुप्त की तरह वीर योद्धा था और न चंद्रगुप्त द्वितीय की भांति मनुष्यों का एक निर्भीक नेता था. यद्यपि डांडेकर का उपरोक्त कथन ठीक है किंतु यह भी उल्लेखनीय है कुमारगुप्त ने अपने साम्राज्य को अक्षुण्ण रखा था तथा उसे शासनकाल सैन्य सफलताओं में कुमारगुप्त सामान न होने पर भी कुछ दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण था. कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल शांति, प्रगति और समृद्धि का काल था. कुमारगुप्त के लेखों और मुद्राओं से तत्कालीन आर्थिक और सांस्कृतिक विकास पर प्रकाश पड़ता है. इन्हीं स्रोतों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त, गुप्तकालीन शासन व्यवस्था में पूर्णता लाने का प्रयास किया था. भीतरी अभिलेख में कुमारगुप्त की प्रशंसा करते हुए उसे बुद्धिमान, शक्ति संपन्न, यशस्वी, पृथ्वी का स्वामी तथा लक्ष्मीवान कहा गया है.

कुमारगुप्त प्रथम के जीवन तथा घटनाएँ

मंदसौर लेख में भी कुमारगुप्त की प्रशंसा करते हुए लिखा गया है कि कुमारगुप्त ऐसी पृथ्वी पर शासन कर रहा था जिसके चारो ओर समुद्र कमरबंद थे सुमेरु एवं कैलाश पर्वत वृहत पयोधर के तुल्य थे तथा सुरम्य वाटिकाओं में खिले हुए प्रसून ही जिसकी हंसी के समान थे. मंजुश्रीमूलकल्प में भी कुमारगुप्त को गुप्त वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक कहा गया है. डाॅ. मजूमदार ने भी कुमारगुप्त प्रथम की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि कुमारगुप्त के शासनकाल को प्राय: रुचिहीन और महत्वहीन माना जाता जो कि उचित नहीं है. उसने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया था तथा इतने विशाल साम्राज्य को एक शक्तिशाली और उपकारी शासक ही नियंत्रण रख सकता था. इसके अतिरिक्त कुमारगुप्त के लिए यह श्रेय की बात थी कि उसने लगभग 40 वर्ष तक की शांतिपूर्ण समय में भी उसने राज-सेना की शक्ति को क्षीण नहीं होने दिया. अत: आधुनिक इतिहासकार कुमारगुप्त के व्यक्तित्व और प्रशासन को जितना प्रदान श्रेय करते हैं, उसे अधिक से उसे मिलना चाहिए.

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