मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव का वर्णन करें

मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव

मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव था या नहीं इस विषय पर विद्वानों में अत्यधिक मतभेद है. स्पूनर, मार्शल और निहार रंजन रे जैसे विद्वान दावा करते हैं कि मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव था. स्पूनर का मानना था कि मौर्य कला पर फारसी कला के प्रभाव था. उसके अनुसार पाटलिपुत्र का राजभवन पारस के राजमहल का प्रतिरूप था. उसने अपने मत के समर्थन में विशेष रुप से सम्राट अशोक के स्तंभ और उनकी बनावट का जिक्र किया है. उसके अनुसार इन स्तंभों का लंबा भाग फारसी शैली पर आधारित है. इसके घंटाकार का शीर्ष भी फारसी शैली पर आधारित है. स्तंभों पर की गई चमकदार पाॅलिश भी फारसी कला का एक उदाहरण है.

मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव

निहार रंजन रे का कहना है कि मौर्य साम्राज्य में विशेषकर अशोक के समय भारतीय हखमनी और यूनानी साम्राज्यवाद के आदर्शों का समन्वय हुआ था. यह समन्वय कला के क्षेत्र में भी हुआ था. स्मिथ ने भी मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव को समर्थन करते हुए लिखा है कि मौर्य कला ईरान और यवनों से प्रभावित हुई है. उसके अनुसार सिकंदर के आक्रमण के समय बहुत से विदेशी सैनिक और शिल्पी भारत में बस गए थे. स्मिथ के अनुसार अशोक ने इन्हीं शिल्पियों की मदद से स्तंभों का निर्माण कराया था. स्मिथ के अनुसार अशोक से पहले भारत में भवन के निर्माण में पत्थरों का उपयोग नहीं किया जाता था. अत: अशोक के शासनकाल में ही भारत में विदेशी कलाकारों की मदद से भवन निर्माण में पत्थरों का इस्तेमाल करना शुरू हुआ.

मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव

वहीं दूसरी ओर बहुत से विद्वान मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव के मत को स्वीकार नहीं करते. अरुण सेन ने इस मत का विरोध करते हुए इसे पूर्णतया भारतीय कला बताया है. उसने फारसी कला और मौर्य कला में भिन्नता प्रमाणित करने की कोशिश की. उसके अनुसार अशोक स्तंभ एकाश्मक और बलुआ पत्थर के बने हुए हैं जबकि पश्चिम स्तंभ अनेक टुकड़ों और विभिन्न पत्थरों के बने हुए हैं. मौर्य स्तंभ में कोई आधार नहीं है जबकि पार्शियन स्तंभ का आधार होता था. मौर्य स्तंभ का लंबा भाग गोलाकार व चमकदार पाॅलिश वाला है जबकि पार्शियन कला पर चमकदार पाॅलिश नहीं होता है. मौर्य स्तंभ के ऊपरी भाग पर उल्टा कमल है जबकि पार्शियन स्तंभ पर नहीं. सारनाथ के स्तंभ के ऊपरी भाग को सामने से देखने पर दो सिंह एक-दूसरे की ओर पीठ किए बैठे प्रतीत होते हैं जो कि पार्शियन कला के एकदम विपरीत है.

मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव

 

अरूण सेन के इन तर्कों के आधार पर मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव के मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता है. चूंकि ये भी संभव है कि मौर्य शासकों ने विदेशी कलाकारों से भवन निर्माण व कला के क्षेत्र में सहायता ली हो लेकिन इस आधार पर मौर्य कला को पूरी तरह विदेशी कला स्वीकार करना असंगत है. इस विषय पर सत्यकेतु विद्यालंकार का कहना है कि अशोक के समय में स्थापत्य एवं मूर्तिकला का असाधारण रूप से विकास हुआ. यह भी सही है कि इस युग में ईरान और यवन राज्य कला के क्षेत्र में अच्छी तरह उन्नति कर चुके थे और भारत का इन देशों के साथ घनिष्ठ संबंध भी था. इस आधार पर यह संभव है कि इन्होंने मौर्य कला को कुछ हद तक प्रभावित किया हो, पर इस पर पूरी तरह विदेशी कला का प्रभाव के मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता. चिरकाल से भारत में जिस कला का निरंतर विकास हो रहा था, वही कला अशोक के समय में राजकीय संरक्षण प्राप्त होने कारण अत्यधिक परिपक्व रूप में आ गया और यहां के शिल्पियों ने काष्ठ स्थान पर प्रस्तर का अधिक प्रयोग करना शुरू कर दिया. ऐसे में यह मानना सर्वाधिक तर्कसंगत है कि मौर्य कला एक ऐसी कला है जिसका आधार भारतीय है परंतु पर इसने ईरानी तथा यूनानी कला से प्रेरणा तथा ज्ञान प्राप्त किया.

मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव

मौर्य कला निसंदेह भारतीय संस्कृति की एक अनुपम संपत्ति है. मौर्य कला ने ही काष्ठ के स्थान पर प्रस्तरों के प्रयोग को बढ़वा देकर इस कला को स्थायी रूप प्रदान किया. बौद्ध धर्म के विस्तार में भी मौर्य कला का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा, लेकिन फिर भी मौर्य कला जनसाधारण पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ सकी क्योंकि यह जनसाधारण की कला ना होकर राजकीय कला थी. यही कारण था कि इस कला को सम्राट अशोक का संरक्षण प्राप्त था. निहार रंजन ने इस संदर्भ में लिखा है कि अशोक का धर्म विजय की नीति के समान इस कला का वास्तविक रूप निश्चित करने में व्यक्ति की रूचि और संकल्प का हाथ था. इन दोनों की जड़ें समाज के सामाजिक रुचि और संकल्प में नहीं थी. इसलिए दोनों विविक्त तथा अचिरजीवी रही तथा शक्तिशाली मौर्य दरबार के क्षेत्र और उसके जीवन के साथ ही समाप्त हो गई. यही कारण है कि इतनी गौरवशाली वृत्ति, स्मारक आकृति और सुपरिष्कृत रूप होते हुए मौर्य कला, भारतीय कला के इतिहास में एक लघु अध्याय के रूप में रह गया. मौर्य कला ने भारतीय कला के विकास में पत्थर के प्रयोग के अलावा कोई अन्य प्रमुख योगदान नहीं दिया. क्रामरिश ने भी लिखा है कि भारतीय कला के क्षेत्र में मौर्य कला का महत्व बहुत कम है. यही कारण है मौर्य स्तंभों और उनकी पशु आकृतियों के समान ही मौर्य कला एकांत में अकेली खड़ी है.

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