शुंगकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक दशा का वर्णन कीजिए

शुंगकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक दशा

भारतीय संस्कृति के विकास की दृष्टिकोण से शुंग एवं सातवाहन काल का बहुत ही विशिष्ट महत्व है. शुंग काल से पहले बौद्ध धर्म के लोकप्रिय होने के कारण लोग ब्राह्मण धर्म से दूर होते जा रहे थे. लेकिन शुंग साम्राज्य की स्थापना ने इस स्थिति में भारी परिवर्तन किया. शुंग शासकों ने ब्राह्मण धर्म की महत्व को फिर से स्थापित किया. इसी कारण शुंग काल को ब्राह्मण संस्कृति का पुनरुद्धार का काल माना जाता है.  शुंग एवं सातवाहन शासकों ने ब्राह्मण धर्म के पुनरुद्धार के साथ भारत का सांस्कृतिक विकास भी किया.  उन्होंने कला एवं साहित्य को प्रोत्साहित किया और धम्म के विजय नीति के स्थान पर फिर से सैन्य विजय की नीति की स्थापना की.

शुंगकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक दशा

सामाजिक स्थिति

1. वर्ण व्यवस्था

शुंग एवं सातवाहन काल में फिर से वर्ण व्यवस्था की स्थापना की गई. इससे पहले बौद्ध धर्म के प्रभाव में प्रभाव से जाति प्रथा और वर्ण व्यवस्था खत्म हो चुकी थी. लेकिन शुंग शासकों ने ब्राह्मण धर्म का पुनरुद्धार करके वर्ण व्यवस्था को फिर से स्थापित कर दिया. मनुस्मृति और याज्ञवाल्कय स्मृति से इस बात की पुष्टि होती है कि इस काल में समाज चार वर्णों में विभाजित था. ब्राह्मण उच्च वर्ण के माने जाते थे. इनका काम अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ करना तथा धार्मिक क्रियाकलाप करना था. ब्राह्मण के बाद समाज में क्षत्रियों का स्थान था.  इनका काम शासन करना, युद्ध करना तथा प्रजा की रक्षा करना था. तीसरा स्थान वैश्यों का था. इनका काम व्यापार करना, पशुपालन, धन लेना तथा देना आदि था. समाज में सबसे निम्न स्थान शुद्रों का था. इनका काम अन्य तीन वर्णों की सेवा करना था.

2. आश्रम व्यवस्था

शुंग काल में जीवन को चार भागों में बांट दिया गया था.  जिन्हें आश्रम कहा जाता था. ये चार आश्रम- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास थे. ब्रह्मचर्य आश्रम 8 वर्ष की आयु से आरंभ होता था. यह अत्यंत कठोर एवं अनुशासित जीवन होता था. इस अवधि में परनिंदा और स्त्रियों से दूर रहना होता था. इस दौरान शिक्षा के द्वारा एक सुयोग्य नागरिक बनाया जाता था. शिक्षा के पूरे करने के बाद गृहस्थ आश्रम में प्रवेश दिया जाता था तथा विवाह करके गृहस्थ जीवन की शुरुआत की जाते थे. मनु ने गृहस्थ आश्रम को ही सबसे महत्वपूर्ण आश्रम मानना है क्योंकि अन्य शेष तीन आश्रम अपनी जीविका के लिए गृहस्थ आश्रम पर ही निर्भर होते थे. तीसरा आश्रम वानप्रस्थ था, जिसे अपना पारिवारिक दायित्व पूरा करने के बाद किया जाता था. वानप्रस्थ आश्रम के बाद सन्यास आश्रम प्रारंभ होता था जिसमें व्यक्ति स्वयं को सांसारिक बंधन से मुक्त कर इसमें प्रवेश करता है.

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3. विवाह

शुभ एवं सातवाहन काल में वैदिक कालीन आठ प्रकार के विवाह का प्रचलन था. ये आठ विवाह- ब्रह्म, दैव्य, आर्ष, प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस और पैशाच थे. विवाह समाज में पुनीत कार्य माना जाता था क्योंकि यह गृहस्थ जीवन का आधार था. समाज में विधवा विवाह का प्रचलन नहीं था किंतु यदि कोई भी विधवा पुत्र प्राप्त करना चाहे तो वह पति के किसी संबंधी के साथ ऐसा कर सकती थी. किंतु केवल उसे एक पुत्र ही उत्पन्न करने की आज्ञा होती थी. विशेष परिस्थितियों में पति और पत्नी एक दूसरे को त्याग सकते थे. किंतु सामान्य बात नहीं थी.

4. स्त्रियों की दशा

शुंग कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी. मनुस्मृति के अनुसार भाई और देवर को स्त्री का सम्मान करना चाहिए. जहां स्त्रियों का सम्मान होता है वहां देवतागण प्रसन्न होते हैं और जहां उनका निराधार होता है वहां सभी धार्मिक क्रियाकलाप निष्फल हो जाते हैं. मनुस्मृति में ये भी लिखा कि जीवन के प्रत्येक काल में स्त्री की रक्षा होनी चाहिए. स्त्री को कभी भी असुरक्षित नहीं छोड़ा जाना चाहिए. उन्हें बचपन में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र का संरक्षण में रहना चाहिए. इस काल की स्त्रियों धार्मिक कार्यों में भी बढ़ चढ़कर भाग लेती थी.

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5. वस्त्र और आभूषण

शुंग कालीन सांस्कृतिक स्रोतों से पता चलता है कि इस काल के लोग सुंदर-सुंदर वस्त्र एवं आभूषण पहनते थे. साधारण जनता सूती और रेशमी कपड़े पहनते थे. स्त्रियां रेशमी कपड़े का घुंघट लगाती थी. स्त्री और पुरुष अपने बालों को विभिन्न तरीकों से काढ़ते थे. स्त्री और पुरुष दोनों ने आभूषण पहनते थे. स्त्रियां अंगूठी और नुपुर पहनती थी.

6. भोजन

शुंग एवं सातवाहन काल के लोग साधारण भोजन किया करते थे. वे खाने में जौ, गेहूं, दूध, चावल, चीनी आदि का अधिक प्रयोग करते थे. मांस खाने वाले मछलियों, खरगोश और अन्य पशुओं को मारकर खाते थे. मांस खाने वाले जानवर, बतख, तोता, सारस इत्यादि का मांस खाना वर्जित था. मनुस्मृति के अनुसार लहसुन, प्याज और वैसी चीजें जो अशुद्ध वस्तुओं से उत्पन्न होती थी, उनको द्विजों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए.

आर्थिक स्थिति

शुंग एवं सातवाहन काल की आर्थिक स्थिति मौर्य काल के समान ही थी.  अतः तत्कालीन आर्थिक स्थिति को अच्छा कहा जा सकता था. इस काल के अनेक आर्थिक स्रोत थे:

1. कृषि

मौर्य काल की तरह ही शुंग कल में भी कृषि ही जीवन यापन का मुख्य आधार था. कृषि कार्य हल और बैलों की सहायता से की जाती थी. भूमि पर किसानों का अधिकार माना जाता था. यद्यपि राजा संपूर्ण भूमि का संग रक्षक होता था, इसीलिए कृषक उनको भूमि कर के रूप में उपज का 1/6 भाग राज्य को देना पड़ता था. सामान्यतया कृषि के मामले में राजा हस्तक्षेप नहीं करता था. किसान खेती के साथ-साथ पशुपालन भी करते थे.

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2. मुद्राएं

शुंग एवं सातवाहन काल में क्रय-विक्रय के लिए मुद्रा का उपयोग किया जाता था. इस काल की मुद्रा अनेक प्रकार की होती थी. सबसे अधिक मूल्य के स्वर्ण के सिक्के होते थे जिसे निष्क, स्वर्ण, सुवर्णात्मक आदि नामों से जाना जाता था. चांदी के सिक्कों को कुषण,  व तांबे के सिक्कों को काषार्पण कहा जाता था. एक सोने के सिक्के का मूल्य 35 का काषार्पण के बराबर होता था.

3. व्यापार

शुंग काल में भारत व्यापार की स्थिति बहुत अच्छी थी. इस समय भारत के विदेशी के व्यापार में भी काफी उन्नति हुई. भारत के व्यापार मिश्र, सिकंदरिया, रोम, चीन, जावा, सुमात्रा, वर्मा आदि देशों से होता था. उसे समय भड़ौच, सोपारा तथा कल्याण भारत के प्रमुख बंदरगाह होते थे. भारत से हाथी दांत, मसाले, सुगंधित द्रव्य, कपड़े और औषधि वृहद मात्रा में निर्यात की जाती थी. द्रव्य में स्वर्ण कमाकर भारतीय व्यापारी भारत आते थे. भारत में प्रमुख बहुत से प्रमुख व्यापारिक केंद्र होते थे. इसमें प्रमुख नासिक, प्रतिष्ठान और जुनार प्रमुख थे. सभी प्रमुख व्यापारिक केंद्र मार्गो के द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए होते थे. सातवाहन काल में व्यापारियों की अलग-अलग श्रेणियां का निर्माण किया गया था. इन श्रेणियां का संगठन इस युग के प्रमुख विशेषता है. अन्न विक्रेताओं, तालियों, जुलाहों, बर्तन बनाने वालों आदि की आदि की अलग-अलग श्रेणियां होती थी जो आधुनिक बैंक के समान कार्य करते थे.

शुंगकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक दशा

शुंग काल में विभिन्न प्रकार के शिल्पों का भी विकास हुआ. तत्कालीन साहित्यों में स्वर्णकार, लोहार, कुंभकार, बेसकार, मछुआरे, माली आदि कार्य करने वालों के विषय में ज्ञात होता है. शुंग एवं सातवाहन काल में आधुनिक वास्तुकारों का भी उल्लेख मिलता है जिन्होंने अनेक भवन, प्रसाद, मंदिरों और स्तूपों का निर्माण किया.

धार्मिक स्थिति

शुंग काल को ब्राह्मण धर्म का पुनरुद्धार युग माना जाता है. इस काल से पहले महात्मा बुद्ध के द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म के अत्यधिक लोकप्रियता के कारण ब्राह्मण धर्म विलुप्त होने के कगार पर था. शुंग काल में ब्राह्मण धर्म को हुए इस नुकसान की भरपाई करने के लिए ब्राह्मण धर्म को फिर से स्थापित किया गया. तत्कालीन साहित्यों से यह पता चलता है कि शुंग शासकों ने दो अश्वमेध यज्ञ किए.  इसके बाद अनेक ब्राह्मण धर्म ग्रंथों की रचना की गई और ब्राह्मण धर्म को पुनर्स्थापित किया गया. तत्कालीन लेखों और साहित्य में वैदिक देवी-देवताओं के नाम मिलते हैं. इस युग में ब्राह्मण धर्म में वैदिक काल की तुलना में बहुत कुछ परिवर्तन आया था क्योंकि समय को देखते हुए लोकप्रियता के उद्देश्य से अनार्यों के कुछ देवी देवताओं को भी उसमें मिला लिया गया था. इस काल में यज्ञ कम होने लगे थे. मंदिरों में मूर्तियों का निर्माण होने लगा. शुंग काल में विष्णु और कृष्ण की उपासना में वृद्धि हुई. इस समय दक्षिण भारत में शैव मत अधिक प्रचलित था और भगवान शिव के नाम पर अनेक नाम रखे जाते थे. शिव की प्रतिमा की आराधना की जाने लगी.  लिंग पूजा का प्रचार भी इस युग में हुआ. नाग देवता की भी पूजा की जाती थी. सूर्य पूजा का भी इस युग में प्रचलन था. उल्लेखनीय है कि अनेक विदेशियों ने भी इस युग में ब्राह्मण धर्म को अपनाया और भारतीय नाम रखे. उदाहरण के लिए मिनांडर ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया तथा उसे मिलिंद कहा जाने लगा.

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