सैयद बंधुओं का अंत कैसे हुआ?

सैयद बंधुओं का पतन

सैयद बंधुओं ने मुग़ल दरबार से ईरानी और तूरानी सरदारों का प्रभाव लगभग खत्म कर दिया था. ऐसे में चिनकिलिच खां नामक एक मुग़ल सरदार ने सैयद बंधुओं के इस प्रभाव को खत्म करने का उपाय खोजने लगा. चिनकिलिच खां को जनसाधारण निजामिलमुल्क के नाम से जानती थी. सैयद बंधुओं ने उसे मालवा का सूबेदार बना कर दिल्ली से बाहर भेज दिया था. निजामुल मुल्क ने अनुभव किया कि बल प्रयोग से राज्य परिवर्तन संभव नहीं है. अत: वह दक्कन की ओर चल पड़ा. उसने असीरगढ़ और बुरहानपुर के दुर्ग पर आक्रमण करके उनको जीत लिया और आलम अली खां जो कि हुसैन अली का दत्तक पुत्र और दक्कन का नायक सूबेदार था, उन्हें मार डाला.

सैयद बंधुओं का अंत

दूसरी ओर दिल्ली में भी एतमादुद्दौला, शआदत अली खां और हैदर खां ने भी सैयद बंधुओं के खिलाफ षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया. इस षड्यंत्र में राजमाता ने भी शामिल थी. इस षड्यंत्र के अनुसार हैदर खां ने हुसैन अली की मारने का बीड़ा उठाया. एक दिन जब हुसैन अली दरबार से वापस लौट रहा था तो हैदर खां ने उस के सामने एक याचिका प्रस्तुत की. जब हुसैन अली उस याचिका को पढ़ रहा था तो हैदर खां ने छुरी से उसकी हत्या कर दी.

हुसैन अली की हत्या का खबर सुनकर अब्दुल्ला खां अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए एक विशाल सी एकत्रित की और मुहम्मद शाह के स्थान पर एक कठपुतली को सिंहासन पर बैठने का प्रयत्न किया. इसी कोशिश में अब्दुल्ला खां 13 नवंबर 1720 ई. को हसनपुर के स्थान पर हुए युद्ध में वह हार गया और उसे बंदी बना लिया गया. दो वर्ष पश्चात 11 अक्टूबर 1722 ई. को उसे जहर देकर मार डाला गया.

सैयद बंधुओं का मूल्यांकन

सैयद बंधु हिंदुस्तानी मुसलमान थे और इसमें गौरव महसूस करते थे. वे ईरानी और तुरानी सरदारों की श्रेष्ठता को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे और न खुद को उनसे हीन समझते थे. लेकिन यह कहना कठिन है कि वे एक ऐसा शासन चाहते थे जिसमें न कोई  मुगल हो या अन्य विदेशी शासक, अर्थात वे एक राष्ट्रीय शासन चाहते थे. 

सैयद बंधुओं का अंत

सैयद बंधु धार्मिक क्षेत्र में भी सहिष्णुता की नीति का पालन करते थे जो कि अकबर के दिनों का स्मरण कर देती थी. इससे प्रभावित होकर उन्होंने 1713 ई. में जरिया हटा दिया था. उन्होंने हिंदुओं का विश्वास भी जीता और उन्हें ऊंचे पद प्रदान किए. रतन चंद की दीवान के रूप में नियुक्ति इस बात की प्रमाण थी. उन्होंने राजपूतों को भी अपनी ओर मिला लिया. महाराजा अजीत सिंह को विद्रोही के स्थान पर मित्र बना लिया. यहां तक की अजीत सिंह ने अपनी बेटी का विवाह सम्राट फर्रुखसीयार से कर दिया. सैयद बंधुओं ने जाटों से भी सहानुभूति दिखलाई और उन्हें उन्हीं के हस्तक्षेप से जाटों ने थूरी दुर्ग का घेरा उठा लिया. सबसे प्रमुख बात यह थी कि मराठों ने भी सैयद बंधुओं का साथ दिया और छत्रपति मुगल सम्राट का नया नायब बन गया. निश्चय ही भारत का इतिहास भिन्न होता यदि सैयद बंधुओं की प्रबुद्ध धर्म नीति का अनुसरण उनके उत्तराधिकारी भी करते.

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