स्वदेशी आंदोलन से आप क्या समझते हैं?

स्वदेशी आंदोलन

भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान विदेशी वस्तुओं की बहिष्कार करने तथा स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल करने के लिए भारतीयों के द्वारा एक व्यापक अभियान चलाया गया था. इसी आंदोलन को स्वदेशी आंदोलन के नाम से जाना जाता है. इस आंदोलन में मुख्य रूप से स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल करने पर जोर दिया गया था. 

स्वदेशी आंदोलन

7 अगस्त 1905 ई.  को कलकत्ता टाऊनहाॅल में इस ऐतिहासिक बहिष्कार का प्रस्ताव पारित हुआ. सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने लोगों से ब्रिटिश कपड़े और नमक की बहिष्कार की अपील की. इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि 16 अक्टूबर 1905 को बंग-भंग लागू होगी. इस घोषणा ने आग में घी का काम किया. ब्रिटिश वस्तुओं की बहिष्कार की अपील पूरे देश में तेजी से फैलने लगी. सितंबर 1904 से सितंबर 1905 ई.  तक  कलकत्ता के कई जिलों में ब्रिटिश कपड़ों की बिक्री 5 से 15 गुणा तक कम हो गई. 16 अक्टूबर 1905 को पूरे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया.  लोग सड़कों पर वंदे मातरम का नारा लगाते हुए निकले और जगह-जगह विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई. विशाल जनसमूह को आनंद मोहन बोस एवं सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने संबोधित किया. 

स्वदेशी आंदोलन

स्वदेशी आंदोलन धीरे-धीरे पूरे भारत में फैलने लगा. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने मुंबई और पुना में इस आंदोलन का नेतृत्व संभाला. अजीत सिंह एवं लाला लाजपत राय ने इसे पंजाब और उत्तर प्रदेश में नेतृत्व प्रदान किया. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी आंदोलन को और ज्यादा शक्ति प्रदान किया. स्वादेशी  आंदोलन के प्रचार के लिए पारंपरिक त्योहारों, धार्मिक मेलों,  लोक परंपराओं आदि का सहारा लिया जाने लगा. अब आंदोलन केवल विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार तक ही सीमित नहीं रहा. अब सरकारी स्कूलों, अदालतों, उपाधियों और नौकरियों तक की बहिष्कार की बात कही जाने लगी.

आंदोलन अभी चरम पर पहुंची ही थी कि लोग में आपसी मनमुटाव शुरू हो गया. यही वजह है 1908 ई. के मध्य तक यह आंदोलन शिथिल पड़ गया. इस कारण यह आंदोलन असफल हो गया.

इन्हें भी पढ़ें:-

  1. स्वदेशी आंदोलन के असफलता के क्या कारण थे?
  2. स्वदेशी आंदोलन के महत्वों का वर्णन करें
  3. महाराजा रणजीत सिंह की उपलब्धियों का वर्णन करें

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