हर्षवर्धन का मूल्यांकन
हर्षवर्धन प्राचीन भारत के महानतम सम्राट में से एक था. उसने 16 वर्ष की आयु में सिहासन को अपनी संभालना शुरू कर दिया. उसके शुरुआती समय अत्यंत करने कठिनाइयों और चुनौतियों से भरा हुआ था, लेकिन हारने अत्यंत साहस और कुशलता से सभी समस्याओं का सामना किया और उस पर विजय प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की. उसे अपने भाई से केवल थानेश्वर का छोटा राज्य प्राप्त हुआ था. उसके राज्य के पश्चिम और उत्तर पश्चिम में शत्रु राज्य थे तथा पूर्व में उसके विरोध में मालवा के परिवर्ती गुप्त शासक देव गुप्त और बंगाल के शासक शशांक थे. देवगुप्त और शशांक ने संधि करके उसके भाई राज्यवर्धन और बहनोई गृहवर्मन को मारने के और कन्नौज पर अधिकार करने में सफलता पाई थी. ऐसी स्थिति में छोटे से थानेश्वर राज की सुरक्षा करना आसान नहीं था. लेकिन हर्ष ने अपने शत्रुओं को परास्त करने में सफलता प्राप्त की और उसने कनौज पर अधिकार कर लिया. उसने कामरूप के शासक भास्कर वर्मा से एक संधि करके शशांक को वापस जाने के लिए बाध्य किया.
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शशांक की मृत्यु के पश्चात हर्ष ने बिहार, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा को जीत लिया. उसने पश्चिम में गुजरात नरेश से भी संघर्ष किया और अंत में उससे विवाह संबंध स्थापित करके अपनी स्थिति को दृढ़ किया. उसने दक्षिण भारत में भी प्रवेश करने की कोशिश की लेकिन वह असफल रहा. इस प्रकार उत्तर भारत के बहुत बड़े भाग पर एक दृढ़ राज्य की स्थापना करने में सफलता पाई. इसके अतिरिक्त पड़ोसी राज्य उसका सम्मान करते थे और उससे अच्छा संबंध बनाए रखने के लिए उत्सुक थे. पुलकेशी द्वितीय ने भले ही उसे परास्त किया, लेकिन फिर भी उसने स्वीकार किया कि हर्ष उत्तर भारत के एक शक्तिशाली शासक था. अतः इस बात में कोई संदेह नहीं कि उसने अपने युद्ध कौशल और नीति से उत्तर भारत में अपने समय का सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया था.
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हर्ष ने जिस प्रकार अपने साम्राज्य का निर्माण किया उससे उसकी युद्ध-कला का ही नहीं वरन उसके नीति-निपूर्णता का भी परिचय मिलता है. उसने ना केवल अनेक राज्यों के विजय प्राप्त की वरन उसकी शक्ति से भयभीत होकर अनेक राज्यों में उसकी अधीनता भी स्वीकार कर ली. हर्ष ने अपने कूटनीतिक कौशल का परिचय देते हुए कामरूप के शासक भास्कर वर्मा और वलभी के राजा ध्रुवभट्ट के साथ भी मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए. इससे उनकी राज्य की सीमाएं और सुरक्षित हो गई.
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हर्ष एक शक्तिशाली शासक होने के साथ-साथ ही सांस्कृतिक क्षेत्र में भी उसकी उपलब्धियां कम नहीं है. वह स्वयं भी उच्च कोटि के विद्वान था तथा विद्वानों का आश्रयदाता भी था. यही कारण भारतीय संस्कृति उस समय अत्यंत उन्नत अवस्था में थी. उसने अशोक के समान ही बौद्ध धर्म का प्रचार व जनकल्याण के कार्य किए तथा समुद्रगुप्त के समान विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया. हर्ष के समय में प्रजा सुखी और संपन्न थी. वह उनके लिए अत्यधिक परिश्रम करता था. घूम-घूम के शासन की देखभाल करना, प्रयाग की सभाओं में अपने धन को दान कर देना, उनकी अपनी विशेषताएं थी. उसने लोक हितकारी कार्य भी किए. ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष ने गांव और शहर से गुजरने वाले सभी मार्गों पर धर्मशालाएं बनवाई. यहां यात्रियों के मुफ्त ठहरने, खाने-पीने और इसके अतिरिक्त इन सभी स्थानों में निर्धनों के लिए दवाई व्यवस्थाएं होती थी. हर्ष स्वयं एक विद्वान भी भी थे. उसने तीन नाटक लिखे थे. वह शिक्षा और विद्वानों का संरक्षक भी था. अनेक विद्वान उनके दरबार में होते थे. उसने चीनी यात्री युवान-च्वांग को भी अपने दरबार में धन और सम्मान दिया. इतिहासकारों का मानना है कि उसके संरक्षण के द्वारा ही नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षा और बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केन्द्र के रूप में पल्लवित हो सका.
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647 ई. में पुलकेशी द्वितीय के साथ हुए युद्ध के दौरान हर्ष की मृत्यु हो गई. हर्ष का कोई पुत्र नहीं था. अतः उसकी मृत्यु के बाद उसके साम्राज्य को कोई योग्य उत्तराधिकारी नहीं मिल पाया. इस वजह से उसका साम्राज्य जल्दी ही छिन्न-भिन्न हो गया.
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