इल्तुतमिश की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए | इल्तुतमिश की उपलब्धियां

इल्तुतमिश की उपलब्धियां

1. यल्दौज पर विजय 

इल्तुतमिश जब शासक बना उस समय गजनी पर सुल्तान ताजुद्दीन यल्दौज का शासन था. यल्दौज भारतीय प्रदेशों को अपने साम्राज्य का हिस्सा मानता था. अत: उसने विभिन्न भारतीय शासकों को गजनी साम्राज्य का प्रतीक चिन्ह भेजा. उसने इल्तुतमिश को भी अपना सामंत मानते हुए अपने साम्राज्य का प्रतीक चिन्ह भेजा. बात इल्तुतमिश के लिए काफी अपमानजनक बात थी, लेकिन उस समय इल्तुतमिश की स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि वह उससे बदला ले सके.

इल्तुतमिश की उपलब्धियों

1215 ई.में ख्वारिज्म के शाह ने गजनी पर आक्रमण पर आक्रमण कर वहाँ के शासक यल्दौज को पराजित किया. यल्दौज गजनी से भाग गया और लाहौर पहुंच गया. यहाँ उसने लाहौर पर हमला करके यहां के शासक कुबाचा को पराजित कर लाहौर पर अधिकार कर लिया फिर उसने पंजाब तथा थानेश्वर तक संपूर्ण क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया. इसे इल्तुतमिश साम्राज्य के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया. अब उसके लिए आवश्यक हो गया कि यल्दौज को पराजित कर किसी तरह उसके बढ़ते प्रभाव को खत्म करें. अत: इल्तुतमिश ने यल्दौज पर आक्रमण कर दिया. दोनों के बीच तराइन के मैदान में भीषण युद्ध हुआ. इस युद्ध में इल्तुतमिश की विजय हुई. यल्दौज को बंदी बनाकर उसका वध कर दिया गया. यह जीत इल्तुतमिश के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि इस जीत से जहाँ उसके एक प्रबल खात्मा हो गया तो दूसरी ओर उसके साम्राज्य के स्वतंत्र अस्तित्व का रास्ता खुल गया.

2. कुबाचा पर विजय

नसीरुद्दीन कुबाचा भी महमूद गौरी का एक गुलाम था. उसकी स्वामी भक्ति से प्रसन्न होकर गौरी ने उसे कच्छ का प्रांतीय शासक नियुक्त किया था.गौरी की मृत्यु के बाद उसने सिबिस्तान के समस्त प्रदेशों पर अपना अधिकार कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया. इसी बीच यल्दौज ख्वाजिम शाह से पराजित होकर लाहौर की ओर आया और लाहौर पर आक्रमण कर उसको कुबाचा से छीन लिया था. लेकिन जब इल्तुतमिश ने यल्दौज को पराजित किया तो कुबाचा ने लाहौर पर पुन:अधिकार कर लिया.

इधर को कुबाचा की बढ़ती हुई शक्ति से इल्तुतमिश काफी चिंतित था. अत:उसने कुबाचा पर आक्रमण करने का निश्चय किया. इल्तुतमिश ने 1217 ई. में कुबाचा पर आक्रमण किया तथा उसे पराजित कर अपनी अधीनता स्वीकार करने पर विवश किया. लेकिन कुछ समय बाद कुबाचा खुद को एक स्वतंत्र शासक घोषित कर लिया. कुबचा का यह कदम इल्तुतमिश को नागवार गुजरा. इसी बीच चंगेज खां ख्वाजिम के शासक जलालुद्दीन मंगबरनी पर हमला कर दिया और उसे भागने पर मजबूर किया. मंगबरनी भागकर पंजाब पहुंचा और कुबचा के राज्य में लूटमार मचाई. इसी समय मंगोलों ने भी कुबाचा के राज्य पर हमला कर दिया और मुल्तान में भारी लूट मचाई. ऐसी स्थिति में कुबाचा गंभीर संकट में फंस गया. इसका फायदा इल्तुतमिश ने उठाया और उस पर हमला कर दिया गया. कुबाचा बिना लड़े भाग गया. लेकिन इल्तुतमिश ने उसका पीछा कर युद्ध करने पर मजबूर किया और उसे पराजित किया. इसके बाद वह लाहौर पर अधिकार कर लिया और अपने पुत्र नसीरुद्दीन को वहां का शासक नियुक्त किया.

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3. मंगोल आक्रमण से साम्राज्य की रक्षा

इस समय मध्य एशिया में मंगोल आक्रमणकारी चंगेज खान तुर्किस्तान इराक मध्य एशिया तथा भारत पर अपना अधिकार करके विशाल साम्राज्य की स्थापना कर चुका था मंगोल जाती अत्यंत बर्बर एवं गरासया सूची उन्होंने ख्वारिज्म पर हमला करके वहां पर अधिकार कर लिया ख्वारिज्म का युवराज जलालुद्दीन मांग बनी मंगोलों से पराजित होकर भारत की ओर भाग गया मंगोल भी उसका पीछा करते हुए भारतीय सीमा तक पहुंच गए भारत पहुंचकर मनभरी बनी निक्कू बचा के राज्य पर हमला करके उस पर कब्जा कर लिया इसके बाद उसने इल्तुतमिश मंगोलों के विरुद्ध सहायता मांगने के लिए अपना दूध भेजा इसमें जनता जानता था कि मांग बढ़ने की मदद करने का अर्थ है मंगोलो हमसे दुश्मनी लेना आता उसने विनम्रता से मांग बढ़ने की सहायता देने से इंकार कर दिया इस प्रकार इल्तुतमिश ने भारत को मंगोलों के आक्रमण से बचा लिया

4. बंगाल विद्रोह का दमन

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु होते ही उसका सामंत अली मर्दान ने बंगाल में अपनी स्वतंत्र शासन की घोषणा कर दी और दिल्ली के सुल्तान को कर भेजना बंद कर दिया. उसने अपने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाने के लिए खिलजी सरदारों का दमन करना शुरू कर दिया. इस कारण खिलजी सरदार उसके विरोधी हो गए और उन्होंने अली मर्दान की हत्या कर दी और उसके स्थान पर हिसामुद्दीन इवाज को बंगाल का शासक बनाया. हिसामुद्दीन ने अपने निकटवर्ती हिंदू राज्यों, कामरूप, तिरहुत तथा जाजनगर आदि पर अधिकार करके उसे अपने मिलाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया. बंगाल की बिगड़ती स्थिति से इल्तुतमिश भी चिंतित था. वह उसे फिर से अपने अधीन में करना चाहता था, लेकिन इस समय वह यल्दौज, कुबाचा और मंगोल आक्रमण के भय के कारण वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था. इन समस्याओं के सुलझ जाने के बाद इल्तुतमिश ने एक विशाल सेना के साथ बंगाल की ओर रुख किया. इल्तुतमिश की विशाल सैन्य शक्ति को देखकर इवाज ने युद्ध करना उचित नहीं समझा और उसने इल्तुतमिश के साथ संधि कर ली. संधि के शर्तों के अनुसार बिहार पर इल्तुतमिश का अधिकार हो गया और वहां उसने मलिक जानी को प्रांतीय शासक नियुक्त किया. इवाज ने स्वयं को इल्तुतमिश का सामंत होना स्वीकार कर लिया और उसे वार्षिक कर देने को भी तैयार हो गया. इल्तुतमिश दिल्ली लौटने के बाद इवाज ने पुनः अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और बिहार पर आक्रमण करके मलिक जानी को परास्त कर बिहार पर भी अधिकार कर लिया.

इल्तुतमिश की उपलब्धियों

बिहार पर इवाज के द्वारा अधिकार करने की सूचना मिलने पर इल्तुतमिश अत्यंत क्रोधित हुआ. अत: उसने अपने पुत्र नसरुद्दीन को इवाज पर आक्रमण करने के लिए भेजा. नसीरुद्दीन ने 1226 ई. में युवराज की राजधानी लखनौती पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया. इस समय इवाज किसी अन्य युद्ध के कारण पूर्व की ओर गया हुआ था. वापस लौट कर इवाज ने नसीरुद्दीन पर आक्रमण किया लेकिन वह इस युद्ध में मारा गया. इस प्रकार बंगाल पर फिर से इल्तुतमिश का अधिकार हो गया. इसके बाद इल्तुतमिश ने नसीरुद्दीन का अवध के साथ-साथ बंगाल का भी शासक बना दिया. किंतु नसीरुद्दीन की मृत्यु के बाद खिलजी सरदारों ने विद्रोह कर दिया. इस पर 1230 ई. में इल्तुतमिश ने पुनः बंगाल पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया. प्रकार बंगाल पर उसने अपना अधिकार बनाए रखा.

5. पंजाब पर अधिकार

जलालुद्दीन मंगबरनी पर जब मंगोलों ने आक्रमण किया तो वह पराजित होकर भागकर भारत आया था. भारत आकर उसने पंजाब पर अधिकार कर लिया.  जब वह भारत से वापस लौटने लगा तो उसने सैफुद्दीन करलु पंजाब का शासक सैफुद्दीन करलुग को पंजाब का शासक नियुक्त करके चला गया. इसके बाद सैफुद्दीन ने पंजाब के अन्य भागों में शासन कर रहे खोखरों से मित्रता कर ली. सैफुद्दीन और खोखरों के कारण से पंजाब में काफी अव्यवस्था फैल गई. अत: इल्तुतमिश ने अपनी शक्तिशाली सेना को वहां की स्थिति सुधारने के लिए पंजाब भेजा. इल्तुतमिश की सेना ने खोखरों का दमन किया और पंजाब के अनेक भागों पर अधिकार कर लिया.

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6. हिंदुओं पर विजय

मोहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद अनेक हिंदू शासकों ने फिर से अपनी शक्ति को संगठित किया. उन्होंने कुतुबुद्दीन ऐबक की परेशानियों काफी फायदा उठाया. इल्तुतमिश भी अपने शासनकाल के प्रारंभ में निरंतर परेशानियों से घिरा रहने के कारण इन हिंदू राजाओं की ओर ध्यान ना दे सका. 1225 ई. के बाद इल्तुतमिश ने इन राज्यों पर अधिकार करने का प्रयास किया. 1226 ई. में इल्तुतमिश ने रणथंबोर प्राधिकार कर लिया तथा 1287 ई. में मंडोर राज्य पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की. 1230 ई. में उसने अनेक हिंदू राज्य पर आक्रमण कर किया तथा उन पर विजय प्राप्त की. इन राज्यों में मुख्य रूप से जालौर, अजमेर, बयाना, सांभर आदि थे. इसके बाद 1231 ई. इल्तुतमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण किया. उस समय वहां का शासक मंगल देव ने लंबे समय तक इल्तुतमिश का सामना किया, लेकिन अंततः पराजित होकर उसे ग्वालियर से भागना पड़ा. इसके बाद ग्वालियर पर इल्तुतमिश का अधिकार हो गया. ग्वालियर के विजय से उत्साहित होकर इल्तुतमिश ने कालिंजर दुर्ग पर आक्रमण किया. कालिंजर का राजा दुर्ग छोड़ कर भाग गया तथा कालिंजर पर इल्तुतमिश अधिकार हो गया. लेकिन उसका अधिकार अस्थायी रहा क्योंकि कुछ समय बाद कालिंजर के चन्देलों ने पुन: दुर्ग पर पूरा अधिकार कर लिया. इसके बाद इल्तुतमिश ने नागदा के गुहिलोतों और गुजरात के सोलंकियों पर अधिकर करने का प्रयास किया, परंतु असफल रहा. इसके बाद इल्तुतमिश ने मालवा पर भी आक्रमण किया और भिलसा के दुर्ग एवं नगर पर अपना अधिकार कर लिया.

7. दोआब पर अधिकार

इल्तुतमिश अपने शासन के प्रारंभिक समय में कठिनाइयों में फंसा हुआ था. इसका फायदा उठाकर बदायूं, कन्नौज, बनारस, कटिहार आदि प्रदेश स्वतंत्र हो गए. बाद में अपनी स्थिति दृढ़ करने के बाद इल्तुतमिश ने इन राज्यों पर फिर से आक्रमण किया और उन पर विजय प्राप्त कर उन पर अधिकार कर लिया. इसके बाद उसने बहराइच पर भी आक्रमण करके वहां अधिकार कर लिया. इसी बीच अवध में विद्रोही होना शुरू हो गया. विद्रोहियों के साथ घमासान युद्ध और संघर्ष के बाद उसने अवध पर फिर से अधिकार करने में सफलता प्राप्त की.

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8. खलीफा से सम्मान की प्राप्ति

इल्तुतमिश ने खलीफा से अपने राज्य को वैज्ञानिक मान्यता प्रदान किए जाने का निवेदन किया. बग़दाद के तत्कालीन खलीफा अल इमाम मुस्तासिर बल्ला ने इल्तुतमिश के निवेदन को स्वीकार करते हुए उसे दिल्ली सल्तनत का सुल्तान घोषित किया तथा उसे नासिर-अमीर-उल-मौमनीन की उपाधि से विभूषित किया. इल्तुतमिश का अंतिम अभियान बामियान का था. अभियान में जाते समय रास्ते में ही उसके अस्वस्थ हो जाने के कारण वापस लौटना पड़ा. 30 अप्रैल 1236 ई. को उसकी मृत्यु हो गई.

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