गुलाम वंश के पतन
गुलाम वंश के राजतंत्र की स्थापना कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1206 ई. में की थी. इसके बाद विभिन्न उसके उत्तराधिकारियों ने गुलाम वंश के शासन का विस्तार किया. बलबन के पश्चात गुलाम वंश के उत्तराधिकारी अत्यंत निर्बल साबित हुए. बलबन की मृत्यु के बाद उसके छोटे पुत्र बुगरा खां के पुत्र कैकुबाद को सिंहासन पर बैठाया गया. लेकिन कैकूबाद अत्यंत अयोग्य और विलासी किस्म का शासक था. उसके अयोग्यता का फायदा उठाकर खिलजी सरदारों ने विद्रोह कर उसे बंदी बना लिया और जून 1290 ई. में उसकी हत्या कर दी गई. इसके बाद गुलाम वंश के शासन का हमेशा के लिए पतन हो गया.
गुलाम वंश के पतन के प्रमुख कारण
1. विदेशी शासन
गुलाम वंश के संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक एक विदेशी गुलाम था. उसने दिल्ली में गुलाम वंश के शासन की स्थापना की. भारत की अधिकांश जनता हिंदू थी. अतः ये इनके विदेशी होने के कारण इन से घृणा करती थी. इस समय हिंदू और मुस्लिम के बीच में परस्पर सहयोग की भावना नहीं थी. ऐसे में गुलाम वंश के शासन के प्रति हिंदू जनता में असंतोष की भावना रहती थी. गुलाम वंश के शासकों ने भी हिंदू जनता के प्रति कठोर नीतियों को अपनाया. बलबन ब्राह्मणों का घोर शत्रु था. वह उनका नाश करना चाहता था. हिंदू धर्म में ब्राह्मणों को पूज्य माना जाता था. अत: गुलाम वंश के शासकों के द्वारा ब्राह्मणों के खिलाफ अपनाई गई नीति के कारण हिंदुओं में आक्रोश बढ़ता चला गया. और वे गुलाम वंश मुक्ति पाने का लगातार प्रयास करने लगी.
2. निरंकुश शासन
गुलाम वंश के शासकों के द्वारा हमेशा निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासन प्रणाली अपनाई जाती रही. उनके शासन में लोक कल्याण व जनहित की भावना नहीं थी. गुलाम वंश के शासकों के द्वारा हमेशा अपने विरोधियों के विरुद्ध कठोर और दमनकारी नीति अपनाई जाती थी. इससे जनता मां आक्रोश की भावना बढ़ती चली गई. विद्रोहों को दबाने के लिए भीषण नरसंहार किया जाता था. शासकों कठोर नीति के कारण उनके शत्रु हमेशा बढ़ते चले गए और इस निरंकुश शासन से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष करने लगे.
3. प्रशासनिक अव्यवस्था
गुलाम वंश के शासन प्रणाली अत्यंत लचर थी. बलबन के अलावा किसी अन्य शासक ने अपने प्रशासन को संगठित और व्यवस्थित करने की कोशिश नहीं की. कुशल प्रशासनिक व्यवस्था के अभाव में प्रशासनिक व्यवस्था अंदर से कमजोर होता चला गया. इसका असर शासन पर भी पड़ने लगा.
4. आंतरिक विद्रोह
गुलाम वंश के शासक हमेशा कठोर और निरंकुश नीति का पालन करते थे. इसके कारण शासकों के विरुद्ध समय-समय पर विद्रोह होते रहते थे. इसका बुरा प्रभाव शासन पर भी पड़ता था. गुलाम वंश के शासन अमीरों और सरदारों के मदद से ही चलता था. ये अमीर और सरदार इतने शक्तिशाली हो गए थे कि सुल्तान को उनका भय बना रहता था. अमीरों की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये अमीर सुल्तानों को पद पर बैठा भी सकते थे और कभी भी उनको हटा भी सकते थे. सुल्तानों की नीतियों के कारण ये अमीर असंतोष रहते थे और वे सुल्तान के विरुद्ध षड्यंत्र करते रहते थे. इस प्रकार अमीरों की बढ़ती ताकत के कारण सुल्तान का पद सुरक्षित नहीं रह गया और धीरे-धीरे गुलाम वंश के शासन का पतन होता चला गया.
5. मंगोल आक्रमण
गुलाम वंश के शासन काल में मंगोल शक्तिशाली होते चले गए. वे गजनी और बगदाद पर भी नियंत्रण कर लिए थे. इस कारण भारत पर मंगोल आक्रमण का खतरा बढ़ना शुरू हो गता. इल्तुतमिश के शासन काल से ही भारत पर मंगोलों ने आक्रमण करना शुरू कर दिया. जिसकी वजह से पश्चिमी सीमा को की सुरक्षा करना कठिन हो रहा था. इन आक्रमणों का सामना करने के लिए प्रचुर मात्रा में धन की आवश्यकता थी. लेकिन गुलाम वंश के शासकों पास धन का भारी अभाव था. बलबन ने अपने शासनकाल में मंगोलों का सामना करने के लिए कुछ कदम उठाए थे. उसके लिए उन्होंने काफी धन खर्च किए थे. लेकिन उनका यह कदम पूरी तरह कारगर न रहा. अत: मंगोलों के आक्रमण का गुलाम वंश के शासन पर भी गंभीर प्रभाव पड़ा.
6. उत्तराधिकारियों के नियुक्ति के लिए नियम का अभाव
गुलाम वंश के शासन व्यवस्था में उत्तराधिकारी के नियुक्ति करने का कोई निश्चित नियम नहीं था. सुल्तान की मृत्यु के पश्चात यह जरूरी नहीं था कि उसका ही पुत्र शासक बने. अतः सुल्तानों की मृत्यु के पश्चात सत्ता के लिए षड्यंत्र, हत्याएं और संघर्ष होती रहती थी. इससे सल्तनत के अंदरूनी शक्ति को काफी नुकसान पहुँचती थी. इस कारण शासन में अस्थिरता बनी रहती थी. गुलाम वंश के शासन के पतन के लिए इस प्रकार की संघर्ष ने भी काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
7. शासकों की भूल
गुलाम वंश के शासकों के द्वारा अपने शासनकाल में कई गलतियां की. यही गलतियां कालांतर में उनके पतन का कारण भी बना. इल्तुतमिश ने अपने शासनकाल में 40 गुलामों के दल का गठन किया. लेकिन धीरे-धीरे इस दल की शक्तियां बढ़ती चली गई और आने वाले शासकों के लिए सिर दर्द के कारण बन गया. उसी प्रकार रजिया सुल्तान ने भी गैर तुर्कों का एक दल बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य तुर्क सामंतों की बढ़ती शक्ति को संतुलन करना था. रजिया सुल्तान के इस कदम का काफी विरोध होने लगा. जिस कारण राजनीतिक समस्या बढ़ती चली गई. उसी प्रकार बलबन ने भी अपने शासनकाल में भारतीय मुसलमानों की भूमिका को कभी स्वीकार नहीं किया. इसके अलावा वह बाह्मणों को नाश करने की कोशिश की जिससे उसे बहुसंख्यक हिंदुओं का समर्थन नहीं मिल पाया. इससे उनके प्रशासनिक क्षमता का भरपूर विकास नहीं हो सका. इन कारणों से उसके उत्तराधिकारियों को जनता का कोई समर्थन नहीं मिल पाया.
8. गुलामों की महत्वाकांक्षाएं
गुलाम वंश के शासनकाल में गुलाम प्रथा जोरों पर था. कई सुल्तान गुलामों की योग्यताओं को देखते हुए उनको को उच्च पदों पर नियुक्त कर देते थे. इससे अन्य गुलामों की भी महत्वकांक्षाएं बढ़ जाती थी. ऐसे में धीरे-धीरे गुलाम शक्तिशाली होते जा रहे थे. इन गुलामों के शक्तिशाली होने के कारण वे सुल्तान के खिलाफ भी विद्रोह करने लगे. ऐसे में शासन एक राजनीति अखाड़ा के रूप में बदलने लगा. इन कारणों से शासन कमजोर होता चला गया.
9. अयोग्य एवं दुर्बल उत्तराधिकारी
बलबन के बाद आने वाले उत्तराधिकारी अत्यंत दुर्बल दुर्बल एवं अयोग्य सिद्ध हुए. बलबन की मृत्यु के पश्चात उसके छोटे बेटे के पुत्र कैकुबाद को सुल्तान बनाया गया. वह अत्यंत निर्बल एवं विलासी प्रवृत्ति का था. वह अपना समय विलासिता में ही बिताता था. ऐसे में विरोधी ताकतों को उभरने का मौका मिल गया. इसके बाद ख़िलजी सरदारों ने विद्रोह कर कैकुबाद को बंदी बना लिया और उसकी हत्या कर दी. इस प्रकार गुलाम वंश का हमेशा के लिए पतन हो गया.
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