चन्द्रगुप्त द्वितीय के शक-विजय की समीक्षा कीजिए

चन्द्रगुप्त द्वितीय का शक-विजय वर्णन

चंद्रगुप्त द्वितीय की शासन काल की सबसे प्रमुख घटना उसके द्वारा शकों को पराजित किया जाना था. यद्यपि उसके पिता समुद्रगुप्त ने भारत के विस्तृत भू-भाग पर विजय प्राप्त की थी, किंतु उनकी विजयों का गुजरात और काठियावाड़ में शासन कर रहे शकों पर कोई प्रभाव नहीं हुआ था. चंद्रगुप्त भारत से विदेशी राज्य को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था तथा गुप्तों और वाकाटकों के बीच वैवाहिक संबंध के द्वारा सहयोगी बन जाने के कारण चंद्रगुप्त के लिए शकों को परास्त करने का कार्य और आसान हो गया. डॉ. बसाक ने लिखा है कि मालवा और सब सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त करने के लिए चंद्रगुप्त को अपने दामाद (वाकाटक का राजा) से काफी मदद मिली.

चन्द्रगुप्त द्वितीय के शक-विजय की समीक्षा

चंद्रगुप्त द्वितीय की शक विजय के बारे में विभिन्न स्रोतों से जानकरी मिलती है. साहित्यिक स्रोतों मुख्य रूप से में देवीचंद्रगुप्तम और हर्षचरित में चंद्रगुप्त द्वितीय के द्वारा शक राजा की हत्या किए जाने का वर्णन मिलता है. अभिलेखीय साक्षों में उदयगिरी पर्वत से प्राप्त एक लेख इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है. चंद्रगुप्त की अनेक मुद्राओं तथा शकों की मुद्राओं से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है. चंद्रगुप्त की कुछ मुद्राओं पर उसे सिंह का शिकार करते दिखाया गया है. सिंह गुजरात के काठियावाड़ के वनों में पाए जाते थे. अत: विद्वानों का विचार है कि इस प्रकार की मुद्रा, उनके इन्हीं प्रदेशों पर विजय का प्रतीक है. इसके अतिरिक्त चंद्रगुप्त द्वितीय के समकालीन शक शासक रूद्र सिंह तृतीय के पश्चात किसी अन्य शक राजा की मुद्राएं नहीं मिलती है.  इससे यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि रूद्र सिंह, शकों का अंतिम शासक रहा होगा तथा चंद्रगुप्त द्वितीय ने उसे ही परास्त किया होगा.

चन्द्रगुप्त द्वितीय के शक-विजय की समीक्षा

भारतीय अनुश्रुतियों में भी चंद्रगुप्त द्वितीय को शकारि कहा गया है. अतः इन अनुश्रुतियों से भी चंद्रगुप्त की शक विजय की पुष्टि होती है. चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर विजय कब प्राप्त की, इस विषय पर विद्वानों में मतभेद है. अनेक विद्वानों का विचार है कि यह विजय 389 ई. और 412 ई. के मध्य किसी समय हुई थी.

वाकाटकों से सहयोग प्राप्त करने के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय ने सर्वप्रथम मालवा पर अधिकार किया तथा मालवा को आधार बनाकर चंद्रगुप्त ने शकों पर आक्रमण किया. इस युद्ध में शक राजा रुद्र सिंह तृतीय मारा गया. युद्ध जीतने के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय ने शक राज्य को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया. इस प्रकार शक सत्ता को भारत से उन्मूलन करने में चंद्रगुप्त द्वितीय सफल हुआ. इसी विजय के उपरांत चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकारि की उपाधि धारण की थी. चंद्रगुप्त द्वितीय का विक्रमांक और विक्रमादित्य उपाधियां भी इसी विजय की ओर संकेत करती है क्योंकि भारतीय परंपरा के अनुसार 57 ई. पू. में राजा विक्रमादित्य ने भी इसी प्रकार शकों का उन्मूलन किया था. अतः संभवत: चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी इसी कारण ये उपाधियाँ धारण की होगी. डॉ. मजूमदार ने इस विषय में लिखा है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के द्वारा धारण किए गए विरुद युद्धस्थल में प्राप्त उस यश का परिचायक है जो कि हिंदू पौराणिक गाथाओं में उच्चतम आदर्शों के प्रतीक स्वीकार किए जाते हैं.

चन्द्रगुप्त द्वितीय के शक-विजय की समीक्षा

चंद्रगुप्त द्वितीय की शकों पर विजय का अत्यधिक राजनीतिक एवं सांस्कृतिक महत्व है. इसी कारण स्मिथ ने चंद्रगुप्त की इस विजय को उसकी महानतम विजय कहा है. इस विजय के परिणामस्वरुप ही तीन शताब्दी से भी पुराने विदेशी राज्य पश्चिमी भारत से खत्म हो गया.  इसके अतिरिक्त इसी विजय के परिणामस्वरूप ही गुप्त साम्राज्य की सीमाएं गुजरात काठियावाड़ तथा पश्चिमी मालवा तक विस्तृत हो गया. चंद्रगुप्त द्वितीय के इस विजय का राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्व के अतिरिक्त आर्थिक महत्व भी है. इस विजय के परिणामस्वरुप गुप्त साम्राज्य के अधीन भड़ौच का बंदरगाह भी आ गया. इसी बंदरगाह से भारत का पश्चिमी देशों के साथ व्यापार होता था. इस बंदरगाह पर अधिकार होने के बाद यहां से होने वाले व्यापार पर भी गुप्तों का नियंत्रण हो गया. इससे आर्थिक लाभ होने के के साथ-साथ उनकी ख्याति पश्चिमी देशों में भी पहुंचने लगी.

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