चालुक्य वंश के उत्थान और पतन
चालुक्य वंश की उत्पत्ति के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है. इनके विषय में विद्वानों की अलग-अलग मत है. विसेंट स्मिथ ने विदेशी मानते हैं. कुछ विद्वानों ने शुल्क जाति से संबंधित मानते हैं. चालुक्य वंश मुख्य रूप से तीन शाखाओं में बटा हुआ है- बदमी चालुक्य वंश, कल्याणी के चालुक्य तथा पूर्वी चालुक्य वंश.
बादामी चालुक्य, चालुक्य वंश की मुख्य शाखा थी. इसी शाखा ने साम्राज्य की नींव डाली. बादामी चालुक्य को प्रारंभ में पश्चिमी चालुक्य भी कहा गया था. उनकी एक शाखा वेगी के चालुक्य थे. इनको पूर्वी चालुक्य वंश कहा जाता है. इन्होंने सातवीं शताब्दी के प्रारंभ के में अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की, परंतु अंत में वे राष्ट्रकूट शासन के अधीन हो गए. इसकी एक अन्य शाखा कल्याणी के चालुक्य थी जिन्हें बाद में पश्चिमी या पिछले चालुक्य के नाम से भी जाना जाता है. इन्होंने 10 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राष्ट्रकूट- शासकों से अपने वंश के राज्य को पुनः छीन लिया और एक बार फिर से चालुक्यों केकृतिमान को स्थापित किए. ह्वेनसांग के अनुसार पुलकेशी द्वितीय एक क्षत्रिय थे. अतः उसके आधार पर चालुक्य शासकों को क्षत्रिय जाति से संबंधित माना जा सकता है.
1. बादामी चालुक्य वंश
कैरा ताम्रपत्र से पता चलता है कि बादामी चालुक्य राजवंश का प्रथम ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण शासक जयसिंह था. बादामी के चालुक्यों ने छठी सदी के मध्य से लेकर आठवीं सदी के मध्य तक 200 वर्षों तक विंध्याचल पर्वत और कृष्णा नदी के बीच के भाग को, जिसमें पश्चिमी महाराष्ट्र, पूर्व में तेलुगु भाषी प्रदेश सम्मिलित था, उनके उनको मिलाकर एक विस्तृत साम्राज्य के निर्माण किया. इस वंश के प्रथम शासक जयसिंह के पश्चात उसका पुत्र रनराग सिंहासन पर बैठा. रनराग के पुत्र पुलकेशी प्रथम ने बादामी (वातापी) किले का निर्माण किया और उसे अपनी राजधानी बनाई. उसका उत्तराधिकारी कीर्तिमान प्रथम ने कदम्ब, कोंकण,नल आदि राजवंश के राजाओं को परास्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया. उनकी मृत्यु के पश्चात उसके भाई मंगलेश पुलकेशी द्वितीय का संरक्षक बनकर शासन किया. उसके पश्चात पुलकेशी द्वितीय शासक बना.
एहोल प्रशस्ति के अनुसार कृतिवर्मन के वीर पुत्र पुलकेशी द्वितीय ने अपने कपटी चाचा मंगलेश की हत्या करके बलपूर्वक चालुक्य राज्य प्राप्त किया. उसके राज्य काल के तीसरे वर्ष में हैदराबाद ताम्रपत्र के अनुसार उसने बादामी की सत्ता 609-10 ई में प्राप्त किया. पुलकेशी द्वितीय के शासन का प्रारंभ, संघर्ष और घटनाओं से आरंभ हुआ. उसने अपनी योग्यता से चालुक्यों को श्रेष्ठता प्रदान की. उसने दक्षिण में क़दम, कोंकण को परास्त किया.उसने मैसूर के गंग और आलूप शासकों को अपनी अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य किया. उसने कोंकण के मोर्यों को परास्त करके उनकी राजधानी राजपुरी (एलिफेंटा) पर अधिकार कर लिया. उत्तर के लाट, मालव और गुर्जर-शासकों को अपनी अधीनता मानने के लिए बाध्य किया. पूर्व में कलिंग को परास्त किया और बिष्टुपुर को जीतकर अपने भाई विष्णुवरन को वहां का राज्यपाल बनाया. बाद में वही विष्णुवर्धन ने पूर्वी चालुक्य के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की. पुलकेशी द्वितीय के समय में चालुक्यों और सुदूर दक्षिण के पल्लव शासकों के बीच संघर्ष आरंभ हुआ. पुलकेशी पल्लव शासक महेंद्र वर्मन को परास्त किया और उसके राज्य की सीमाओं को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया. तत्पश्चात उसने चोल, चेर और पांडय राज्यों से मित्रता की, जिससे वह पल्लव के विरुद्ध उनके सहायक बने रहे. परंतु महेंद्रवर्मन के उत्तराधिकारी नरसिंह वर्मन (630-668) ने उस पराजय का बदला लिया. उसने पुलकेशी को पराजित ही नहीं किया, बल्कि चालुक्यों की राजधानी बादामी पर भी अधिकार कर लिया. 642 ई. लगभग पुलकेशी द्वितीय युद्ध करते हुए मारा गया. इस प्रकार वह अंत में पल्लव से पराजित हुआ.
पुलकेशी द्वितीय की मृत्यु के समय पल्लव ने बादामी और चालुक्यों के राज्य के दक्षिण भाग पर अधिकार कर रखा था. इसका लाभ उठाकर चालुक्यों के राज्यपालों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया. पुलकेशी के पुत्र पल्लव से संघर्ष करते रहे और संभवत वे आपस में भी संघर्ष करते रहे जिसके कारण 642 ई से 655 ई. तक किसी चालुक्य शासक का नाम पता नहीं चलता है. अंत में इस संघर्ष में पुलकेशी का छोटा पुत्र विक्रमादित्य सफल हुआ. उसने बादामी पर पुनः अधिकार कर लिया और पल्लवों को अपने राज्य से बाहर निकाल दिया. विक्रमादित्य ने अपने पिता के समान ही योग्य था. उसने चोल, चेर और पांडय शासकों परास्त किया. उसने अपने पूर्वजों के अपमान का बदला लेने के लिए पल्लव शासक महेंद्र वर्मन द्वितीय और परमेश्वर मवर्मन प्रथम से युद्ध किया और उनको पराजित किया. कुछ समय के लिए उसकी राजधानी कांची पर भी अपना अधिकार कर लिया था, परंतु उनकी यह विजय स्थायी नहीं रही. बाद में परमेश्वरवर्मन प्रथम ने विक्रमादित्य को परास्त करके अपने संपूर्ण राज्य को चालुक्यों से वापस से छीन लिया. विक्रमादित्य के महत्वपूर्ण उत्तराधिकारी विनयादित्य और विक्रमादित्य द्वितीय हुए. विनयादित्य ने पल्लवों से युद्ध करने के अतिरिक्त उत्तर भारत पर भी सफल आक्रमण किए, जबकि विक्रमादित्य पल्लव-नरेश परमेश्वरवर्मन को परास्त करने में सफलता पाई.
कीर्तिवर्मन बादामी के चालुक्यों का अंतिम शासक हुआ. पल्लव शासकों से हुए संघर्ष में चालुक्यों की शक्ति दुर्बल होती चली गई. वह अपने साम्राज्य की दुर्बल स्थिति के कारण उत्तर भारत के राज्यपालों की ओर ध्यान ना दे सका. उन्हीं में से राष्ट्रकूट वंश के राज्यपाल दन्तिदुर्ग ने चालुक्यों की कमजोर स्थिति का फायदा उठाकर उसके राज्य के अधिकांश भाग को जीतकर चालुक्यों के वैभव-काल को आरंभ किया. दन्तिदुर्ग की मृत्यु के पश्चात कृतिवर्मन द्वितीय ने अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न किया परंतु असफल हुआ और दन्तिदुर्ग के उत्तराधिकारी कृष्ण प्रथम ने उनके बचे हुए राज्य को छीन कर बादामी के चालुक्यों के अस्तित्व को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया.
2. पूर्वी चालुक्य वंश
बादामी चालुक्यों को समाप्त करने के बाद राष्ट्रकूटों ने पूर्वी चालुक्यों भी समाप्त करने का प्रयास करना शुरू कर दिए. पूर्वी चालुक्य वंश का संस्थापक विष्णुवर्धन था. ये वही विष्णुवर्धन है जिसे पुलकेशी द्वितीय ने पिष्टपुर का राज्यपाल बनाया था. बाद में इसने अपना स्वतंत्र पूर्वी चालुक्य साम्राज्य की स्थापना की.
राष्ट्रकूटों ने जब बादामी चालुक्य वंश को समाप्त किया उस समय पूर्वी चालुक्य वंश के विजयादित्य शासन कर रहे थे. बादामी चालुक्यों को खत्म करने के बाद राष्ट्रकूटों का ध्यान अब पूर्वी चालुक्य वंश पर गया. राष्ट्रकूटों ने जब पूर्वी चालुक्य वंश पर हमले करने शुरू कर दिए तब विष्णुवर्धन चतुर्थ (764-799) शासन कर रहे थे. राष्ट्रकूटों ने इनको परास्त कर अपनी अधीनता स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया. 799 ई. में राष्ट्रकूट सत्ता के लिए गोविन्द तृतीय और उसके भाई ध्रुव के बीच संघर्ष हुई. इसमें चालुक्यों ने गोविन्द तृतीय की मदद की. इस संघर्ष में ध्रुव विजय हुआ. इसके बाद उसने चालुक्यों पर हमला करके पराजित करके अपने आपमान का बदला लिया.
892 ई. में भीम प्रथम चालुक्य का शासक बना. उसका संपूर्ण शासनकाल राष्ट्रकूट शासक कृष्णा द्वितीय से संघर्ष करते हुए बीता. वह कई बार परास्त हुआ, लेकिन अंततः वह राष्ट्रकूटों को अपनी सीमाओं से बाहर खदेड़ने में सफल रहा. परंतु इन संघर्षों चालुक्यों की शक्ति को अत्यंत कमजोर कर दिया. भीम के बाद क्रमशः विजयादित्य चतुर्थ (921-923), अम्मा प्रथम (922-929) तथा विजयादित्य पंचम शासक बने. विजयादित्य पंचम ने मात्र 15 दिन शासन किया और ताल ने उनको पद से हटा दिया. इसके बाद सत्ता के लिए चालुक्यों की आपसी प्रतिद्वंद्विता शुरू हुई. इसके बाद उनके बीच बाहरी शक्तियों की मदद से सिंहासन पर अधिकार करने की कोशिश करने शुरू हो गए. अंत में शक्तिवर्मन प्रथम ने चोल शासक की मदद से वेंगी पर अधिकार कर लिए. इसके बाद चालुक्यों की स्वतंत्र सत्ता खत्म हो गई और वे चोल शासकों के अधीन शासक मात्र रह गए. इस प्रकार राष्ट्रकूटों शासकों से लगातार संघर्ष और अपनी आंतरिक कलह के कारण 10 वीं सदी के अंत तक पूर्वी चालुक्यों का अस्तित्व हमेशा के लिए नष्ट हो गया.
3. कल्याणी के चालुक्य
कल्याणी के चालुक्य, राष्ट्रकूट शासकों के अधीन सामान शासक थे. अंतिम राष्ट्रकूट शासक कर्क के समय उसके चालुक्य के सामंत तैलप द्वितीय ने विद्रोह किया और कर्क को परास्त करके राष्ट्रकूटों के राज्य पर अधिकार कर लिए. गंग के शासक मारसिंह ने अपने भतीजे और राष्ट्रकूट वंशज की तरफ से एक बार फिर राष्ट्रकूटों के राज्य को वापस प्राप्त करने का प्रयत्न किया, परंतु तैलप द्वितीय ने उसको परास्त कर दिया.
तैलप एक महान योद्धा थे. उसने चेदि, उड़ीसा, कुंतल, गुजरात के चालुक्य, मालवा के परमार शासक मुंज और चोल शासक उत्तम को परास्त किया. तैलप द्वितीय ने छह बार मालवा पर आक्रमण किया लेकिन शासक मुंज सफलतापूर्वक तैलप का सामना किया. बार-बार की जा रही आक्रमण से परेशान होकर उसने गोदावरी नदी पार करके चालुक्य साम्राज्य पर हमला कर दिया. लेकिन इस युद्ध में वह पराजित हुआ और उसे बंदी बना लिया गया फिर बाद में उसकी हत्या कर दी गयी. तैलप ने पंचाल नरेश को भी अपने अधीन कर लिया. इस प्रकार विभिन्न युद्धों में भाग लेकर उसने चालुक्यों के एक बड़े साम्राज्य का निर्माण किया. वह खुद को बादामी के महान चालुक्यों का वंशज बताता था.
तैलप के उत्तराधिकारी सत्याश्रय (997-1068) हुए. उनको भी अनेक युद्ध लड़ने पड़े. उसे परमार शासक सिंधुराज और कलचुरि शासक कोक्कल द्वितीय ने परास्त किया. उसने चोल शासक राजराज को परास्त करने में सफलता पाई. इसके पश्चात तैलप के अनेक से उत्तराधिकारी हुए. वे शत्रुओं से अपने साम्राज्य की रक्षा करने में असमर्थ रहे.
उसके पश्चात् में सोमेश्वर प्रथम (1043-1068) चालुक्य साम्राज्य का शासक बना. उसे काफी सफलता मिली. उसने 1055 ई. में मालवा के परमार शासक भोज और कलचुरी शासक लक्ष्मी को पराजित करके आधुनिक मध्यप्रदेश के दक्षिणी जिलों पर अधिकार कर लिया. उसने कोंकण, मालवा, गुजरात दक्षिणी कोसल और केरल पर भी आक्रमण किए तथा कलचुरी शासक कर्ण से युद्ध किया. उनका मुख्य झगड़ा चोल शासकों से रहा. चोल शासक राजाधिराज ने उसकी राजधानी कल्याणी को लूटने में सफलता पाई, परंतु सोमेश्वर उससे संघर्ष करता रहा और अंत में उनके बीच हुए एक युद्ध में राजाधिराज चोल मारा गया. इसके पश्चात राजाधिराज के भाई राजेंद्र चोल सहित अन्य सोमेश्वर के आक्रमण आक्रमणों के विरुद्ध चोल साम्राज्य की रक्षा करने में सफलता पाई और अंत में 1063 ई. में सोमेश्वर की पराजय हुई. सोमेश्वर प्रथम के बाद सोमेश्वर द्वितीय (1068-1076) शासक बना. इसके बाद विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126) शासक बना. इसने अनेक युद्ध करके अपने राज्य का विस्तार किया. उसका राज्य उत्तर में नर्मदा नदी और दक्षिण में कडप्पा और मैसूर तक फैल गया. इसके पश्चात सोमेश्वर तृतीय, जगदेकमल्ल और तैल चालुक्यों के शासक हुए. तैल तृतीय के समय चालुक्य राज्य छिन्न-भिन्न हो गया. उसने चालुक्य कुमारपाल और कुलोत्तुंग चोल के विरूद्ध सफलता पाई लेकिन वह काकतीय राजाओं का सामना नहीं कर पाया. अंत में उसी के सेनापति विज्जल ने उसकी राजधानी कल्याणी पर अधिकार कर लिया. 1181 में में सोमेश्वर चतुर्थ ने वापस अपने पूर्वजों के राज्य पर अधिकार कर लिया परंतु यादव शासक भिल्लम से परास्त होकर भागना पड़ गया. सोमेश्वर चतुर्थ कल्याणी चालुक्य वंश का अंतिम शासक हुआ. उसे गोवा में अपने ही अधीन एक सामंत के पास रहकर अपना जीवन व्यतीत करना पड़ा.
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इन्हें भी पढ़ें:
- कल्याणी के चालुक्यों की संक्षिप्त इतिहास लिखिए
- चालुक्यों की सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन करें
- तुर्क आक्रमण के समय भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दशा का उल्लेख कीजिए
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