चीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद पर एक लेख लिखें

चीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद

यूरोप के साथ चीन के व्यापारिक संबंध प्राचीन काल से ही चली आ रही थी. इसी कारण से चीन में चीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद का विस्तार होना शुरू हो गया. चीन से यूरोपीय देशों पर रेशम का निर्यात होता था. यूरोप के बाजारों में चीनी रेशम की काफी मांग थी. इसी बीच लगभग छठी शताब्दी में कुछ यूरोपीय लोगों ने चीन के रेशम के कीड़ों की चोरी कर ली तथा इनसे यूरोप में अपना व्यापार शुरू कर दिया. इस कारण यूरोपीय देशों में चीनी रेशम के लिए चीन पर निर्भरता समाप्त हो गई. इसके बाद चीन और यूरोप के बीच का संपर्क लंबे समय के लिए टूट सा गया था.

चीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद

635 ई. के लगभग कुछ ईसाई धर्म प्रचारकों ने चीन पहुंच कर ईसाई धर्म का प्रचार करना आरंभ कर दिया. 845 ई. में इस प्रकार के प्रचार में चीन के द्वारा प्रतिबंध लगा देने के कारण चीन और यूरोप के बीच का संपर्क लगभग 12 वीं शताब्दी तक टूटा रहा. इसके बाद तेरहवीं शताब्दी में ईसाई धर्म प्रचारकों ने फिर से चीन आना शुरू कर दिया. 1275 ई. में वेनिश यात्री मार्कोपोलो चीन पहुंचा. उसके बाद वह चीन से वापस लौटकर यूरोप वासियों को चीन के बारे में बहुत सी अविश्वसनीय जानकारियाँ दी, जिससे यूरोप वासियों के मन में चीन की यात्रा करने की प्रेरणा जागी. इसके बाद 1498 ई. में पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा भारत के कालीकट बंदरगाह पहुंचा. यहां से मलक्का होते हुए 1514 ई. में चीन पहुंचा. 15042 में पुर्तगालियों ने चीन के निंगपो में बसने और वहां व्यापार करने की अनुमति प्राप्त कर ली. 1557 इसमें पुर्तगालियों को चीन के मकाओ द्वीप में भी व्यापार करने की अनुमति मिल गई.

चीन में पुर्तगालियों के व्यापार करने की अनुमति मिलने के बाद स्पेन के व्यापारियों ने भी चीन की ओर रुख करना शुरू कर दिया. 1557 ई. में फिलीपीन तथा स्पेनवासी चीन आना शुरू कर दिए. इसके बाद 1680 ई. डच आए. इनका देखा-देखी 1637 ई. में अंग्रेज व्यापारियों ने भी चीन की ओर कदम बढ़ाया. अब चीन में पुर्तगाली व्यापारियों के अलावा स्पेन, फिलीपीन, डच और अंग्रेजी व्यापारियों ने व्यापार करना आरंभ कर दिए. वे चीन के व्यापारिक बंदरगाह कैण्टन पर अपना-अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश करने लगे.

चीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद

इस समय यूरोपीय व्यापारी जहां समुद्री मार्ग से चीन पर छाने की कोशिश कर रहे थे, वहीं रूस भी स्थल मार्ग चीन पर अपना प्रभाव जमाने के फिराक में था. रूस की ऐसी कोशिशों को देखते हुए भविष्य में दोनों देशों के बीच सीमा विवाद होने की संभावना को देखते हुए दोनों देशों ने 1689 ई. में नेरशिन्स्क की संधि की. यह संधि किसी पश्चिमी राष्ट्र के साथ चीन की पहली संधि थी. 1727 ई. में चीन ने अपना दूत सेंटपीटर्स भेजा. किसी भी विदेशी राज्य में चीन का यह पहला दूत था.

इस प्रकार धीरे-धीरे चीन में विदेशी व्यापारियों का जमावड़ा बढ़ता चला गया, लेकिन फिर भी उनके लिए चीन व्यापार करना आसान नहीं था क्योंकि चीन ने विदेशी व्यापारियों पर कठोर प्रतिबंध लगा रखे थे. इसके बावजूद यूरोपीय व्यापारी चीन में अपना व्यापार  परित्याग नहीं करना चाहते थे. यूरोपीय व्यापारी चीन में अफीम के व्यापार कर यथेष्ट लाभ कमाना चाहते थे. चीन में अफीम का व्यापार करने के मामले में अंग्रेजों ने अन्य यूरोपीय व्यापारियों को पीछे छोड़ दिया. 18 वीं सदी के अंत तक अंग्रेजों ने कैण्टन बंदरगाह के लगभग संपूर्ण व्यापार पर अपना एकाधिकार जमा लिया.

चीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद

आरंभ में चीन में अफीम के व्यापार करना करने पर प्रतिबंध लगा हुआ था. चीनी लोग भी अफीम के आदी नहीं थे. इसलिए चीन में अफीम की मांग ना के बराबर थी. इसीलिए अंग्रेजों ने चीनी लोगों को मुफ्त में अफीम बांटना शुरू कर दिया.  इस कारण चीनी धीरे-धीरे अफीम के आदी होते चले गए. जब चीनी नागरिक अफीम के आदी हो गए, तब अंग्रेजों ने अफीम बेचना शुरू कर दिया. चीन में बढ़ती अफीम के व्यापार को देखकर चीनी सरकार ने चीन में अफीम के व्यापार को प्रतिबंध कर दिया, लेकिन अंग्रेज व्यापारी चीन में अफीम के व्यापार को किसी भी सूरत में बंद नहीं करना चाहते थे. इसी बात को लेकर चीन और अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच दो युद्ध हुए. इन युद्ध को प्रथम तथा द्वितीय अफीम युद्ध के नाम से जाना जाता है. 

प्रथम तथा द्वितीय युद्ध में चीन को करारी हार का सामना करना पड़ा. इन युद्धों को रोकने के लिए चीन को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शर्तों के साथ संधि करनी पड़ी. संधि के शर्तों के अनुसार चीन को अपने देश में अफीम के व्यापार करने की अनुमति देने के साथ-साथ बहुत से व्यापारिक अधिकार देनी पड़ी. इन संधियों के कारण अंग्रेजों को बहुत लाभ मिला. इनको देखते हुए रूस, जापान, अमेरिका तथा अन्य यूरोपीय देशों को भी चीन के साथ ऐसी ही संधि करने की प्रेरणा मिली. धीरे-धीरे इन देशों ने भी चीन के साथ कई संधियां करके चीन में व्यापार करने के बहुत से अधिकार प्राप्त कर लिए. इसके बाद चीन में विदेशी शक्तियों का जमावड़ा बढ़ता चला गया और चीन में लूट-खसोट की नीति आरंभ हो गई. 

चीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद

चीन में जिस प्रकार विदेशी शक्तियों का जमावड़ा शुरू हुआ उससे चीन पर काफी बुरा प्रभाव पड़ा. ये देश चीन में अपनी मनमानी करने लगे. चीन के कानून इनके लिए कोई मायने नहीं रहे. इन सबसे चीन भी काफी परेशान हो उठा. वह चाहकर भी इन देशों के खिलाफ कुछ बोल नहीं पाता था. इधर चीन के अंदर अपने-अपने व्यापारिक वर्चस्व को लेकर यूरोपीय देशों और पश्चिमी देशों के बीच प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई. ये प्रतिस्पर्धा आगे चलकर कई बड़े-बड़े युद्धों को जन्म दिया. इन युद्धों ने विश्व इतिहास के दिशा और दशा भी बदल कर रख थी. इन विदेशी शक्तियों के आपसी संघर्ष से चीन पूरी तरह बर्बाद हो गया. चीन अब पूरी तरह पश्चिमी साम्राज्यवाद और लूट-खसोट का अड्डा बन चुका था. 

इस प्रकार हम पाते हैं कि चीन में अन्य देशों के व्यापारियों को अनुमति देने के चक्कर में चीन पश्चिमी साम्राज्यवाद का अड्डा और विश्व महाशक्तियों के युद्ध का अखाड़ा बन गया था जो कि आगे चलकर चीन के लिए बहुत ही नुकसानदायक साबित हुआ. 

———————–

इन्हें भी पढ़ें:-

  1. 1904-05 ई. के रूस-जापान युद्ध के कारण और परिणामों पर प्रकाश डालिए
  2. मंचूरिया संकट के क्या परिणाम हुए?
  3. मंचूरिया संकट के क्या कारण थे?

——————————

Note:- इतिहास से सम्बंधित प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल रहे हैं तो कृपया कमेंट बॉक्स में कमेंट करें. आपके प्रश्नों के उत्तर यथासंभव उपलब्ध कराने की कोशिश की जाएगी.

अगर आपको हमारे वेबसाइट से कोई फायदा पहुँच रहा हो तो कृपया कमेंट और अपने दोस्तों को शेयर करके हमारा हौसला बढ़ाएं ताकि हम और अधिक आपके लिए काम कर सकें.  

 धन्यवाद.

Leave a Comment

Telegram
WhatsApp
FbMessenger