जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों का वर्णन करें

जैन धर्म

महावीर जैन, जैन धर्म के चौबीसवें तथा अंतिम तीर्थकर थे. वह जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं थे किंतु उन्होंने जैन धर्म का पुनरुद्धार किया. उसने जैन धर्म के सिद्धांतों को फिर से सुव्यवस्थित किया तथा जैन संघ की स्थापना की. उसने सत्य का पता लगाने में वेदों के प्रमाण को अस्वीकार कर दिया और तीर्थकरों के ज्ञान और उनके वचनों को प्रमाणिक माना. महावीर ने आत्मवादियों और नास्तिकों के एकांतवाद मतों का त्याग किया. उसने जिन मतों को अपनाया उनको अनेकांतवाद या स्यादवाद कहा जाता है. इसके अनुसार सत्य के अनेक पहलू हैं तथा मनुष्य को परिस्थिति-भेद से उसका आंशिक ज्ञान होता है. कोई इस बात का दावा नहीं कर सकता है कि उसका विचार सत्य है और दूसरों का असत्य. 

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत

 

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत (Main principles of Jainism)

1. अनीश्वरवादिता

जैन धर्म ईश्वर को सृष्टि के रचयिता एवं पालनकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं करता. महावीर का विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति में अनेक गुप्त शक्तियां होती है. यदि वह व्यक्ति उन शक्तियों का पूर्णरूपेण विकास कर ले और अपने आत्मा का शुद्धीकरण ले तो स्वयं परमात्मा बन सकता है. महावीर के अनुसार संसार अनादि और अनंत है. जैन धर्मांवलंबी ईश्वर की नहीं वरन तीर्थकरों की पूजा करते हैं क्योंकि जैन धर्म के अनुसार संसार छह द्रव्यों से बना है. ये छह द्रव्य काल, आकाश, धर्म, अधर्म, पुद्गल तथा जीव हैं. अतः इस संसार का निर्माण इन द्रवों से हुआ है.  ऐसी स्थिति में ईश्वर की आराधना करने का कोई महत्व नहीं है.

2. आत्मवादिता एवं अनेकात्मवादिता

जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है. जिस प्रकार ब्राह्मण धर्म में आत्मा को अजर अमर एवं अनंत माना जाता, उसी प्रकार जैन धर्म में भी आत्मा की अमरत्व पर विश्वास किया जाता है. महावीर के अनुसार आत्मा की कोई आकृति नहीं होती किंतु वह प्रकाश के समान अस्तित्व रखती है तथा सुख-दुख का अनुभव करती है. जैन धर्म न केवल मनुष्य और जानवरों में बल्कि प्रत्येक जीव में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है. जैन धर्म के अनुसार पेड़-पौधों में भी आत्मा होती है. प्रत्येक जीव में अलग-अलग आत्मा होती है. महावीर के अनुसार आत्मा स्वभाव से निर्विकार एवं सर्वद्रष्टा है किंतु मनुष्य मोह के बंधन और कर्मजाल में फंसकर उसकी शक्ति को क्षीण कर देते हैं.

3. निवृत्ति मार्ग

बौद्ध धर्म के समान जैन धर्म में भी निवृत्ति मार्ग को प्रधानता दी गई है. जैन धर्म के अनुसार संसार दुखों से परिपूर्ण है. दुखों से निवृति जैन धर्म का प्रमुख उपदेश है. जैन धर्म भी दुखों का वास्तविक कारण तृष्णा को ही मानते हैं. तृष्णा, प्रवृत्ति मार्ग पर चलने से उत्पन्न होती है. अतः प्रत्येक व्यक्ति को संसार के सारे कर्मों को त्याग कर निवृत्ति का मार्ग अपनाना चाहिए. तभी उसका कल्याण हो सकता है. जैन धर्म के अनुसार संसारिक सुकून को त्याग कर निवृत्ति तथा तपस्या का मार्ग अपना कर संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए.

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत

4. कर्म प्रधानता एवं पुनर्जन्म विश्वास

जैन धर्म, कर्म को प्रधानता देता तथा पुनर्जन्म में भी विश्वास करता है. उनके अनुसार कर्म ही भावी जीवन का निर्माण करती है. अतः कर्म को अधिक सुंदर बनाने चाहिए. कर्म का पुनर्जन्म के साथ सीधा-सीधा संबंध है. कर्मों के आधार पर  ही अगला जन्म प्राप्त होता है. जैन धर्म के अनुसार कम आयु याण अधिक आयु में मृत्यु भी पिछले जन्म के कर्मों के कारण होती है. जैन धर्म के अनुसार मोक्ष एवं निर्वाण प्राप्त करके ही जन्म-चक्र के बंधन से मुक्ति पाया जा सकता. इसीलिए मनुष्य को सत्कर्म करते हुए मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए.

5. निर्वाण

अन्य भारतीय धर्मों के समान जैन धर्म में भी निर्वाण अथवा मोक्ष प्राप्ति को अंतिम लक्ष्य माना जाता है. महावीर के अनुसार कर्मय-बंधन से मुक्ति पाना ही मोक्ष अथवा निर्वाचन है. कर्म-बंधन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि पूर्व जन्म के कर्मों का नाश कर इस जन्म में सत्कर्म किया जाए. महावीर के अनुसार कठोर तप और व्रत के द्वारा पूर्व जन्म के दुष्कर्मों का विनाश होता है तथा तृष्णा समाप्त होती है. मोक्ष प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करना अति आवश्यक है. निर्वाण प्राप्त करने के लिए जैन धर्म, त्रिरत्न को आवश्यक मानता है.

6. त्रिरत्न

जैन धर्म में त्रिरत्न का पालन करना मोक्ष प्राप्त करने के लिए अति आवश्यक कहा गया है. ये त्रिरत्न- सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक्-चरित्र है. उमा स्वामी ने तत्वार्थाधिगम-सूत्र में लिखा है कि सम्यक-दर्शन, सम्यक-ज्ञान व सम्यक-चरित्र ही मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग है. तीनों के सम्मिलित होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है.

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत

7. तप एवं व्रत

जैन धर्म के अनुसार दुखों का मूल कारण दुष्कर्म एवं तृष्णा है.  इनके विनाश का एक ही रास्ता है कठोर तपस्या और व्रत रख किया जाए. महावीर के अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के लिए तप एवं व्रत आवश्यक है.

8. अहिंसा

जैन धर्म अहिंसा पर अत्यधिक बल देता है. जैन धर्म के अनुसार जड़ और चेतना दोनों प्रकार की वस्तुओं में जीव का अस्तित्व होता है. जैन धर्म के अनुसार सभी जीव समान है. अतः उसमें पारस्परिक समादर का भाव होना चाहिए. दूसरों के प्रति हमारा आचरण वैसा ही होना चाहिए जैसा हम दूसरों का अचरण अपने प्रति चाहते हैं. जैन धर्म के अनुसार जीव की हत्या न करना ही पर्याप्त नहीं है, वरन हिंसा के विषय में बोलना, सोचना और दूसरों को हिंसा करने में साथ देना भी अधर्म है. जब तक मन, वचन और कर्म से अहिंसा का पालन ना किया जाए तब तक अहिंसा पूर्ण नहीं मानी जाती.

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत

9. अठारह पाप

जैन धर्म ने अपने सिद्धांतों में अठारह कार्यों का उल्लेख किया है जो मनुष्य को कर्म बंधन में डालते हैं. इस कारण इन कार्यों को पाप समझा जाता है. यह अठारह पाप हैं- अभिमान, हिंसा, कलह, क्रोध, झूठ, परिग्रह, राग, दोषारोपण, रति, माया, लोभ, चोरी, असंयम, मिथ्य-दर्शन, छल-कपट, निंदा, चुगली और द्वेष.

10. पंच महाव्रत

जैन धर्म के अनुयायियों को पंच महाव्रतों का उपदेश दिया गया. इन पंच महाव्रतों में से प्रथम चार महाव्रतों का प्रतिपादन पार्श्वनाथ ने किया. ये महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह हैं. इसके अलावा पांचवें महाव्रत ब्रह्मचर्य का प्रतिपादन महावीर ने किया था.

11. वेदों में अविश्वास

जैन धर्म वेदों में विश्वास नहीं रखते हैं. जैन धर्म ने हमेशा ब्राह्मण धर्म में व्याप्त कुरीतियों का आलोचना किया है. जैन धर्म मुख्य रूप से वेदों में वर्णित पशु बलि, यज्ञ आदि का घोर विरोधी है.

12. समानता एवं सदाचार

जैन धर्म वर्ण व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता है. उसके अनुसार ब्राह्मण और शूद्र में कोई अंतर नहीं है. जैन धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्त करने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है चाहे वह ब्राह्मण हो या फिर शूद्र. महावीर ने नारियों को सम्मान देने पर भी विशेष बल दिया है. इसके अलावा सदाचारी एवं नैतिक जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया है. जैन धर्म के अनुसार सदाचारी व्यक्ति ही निर्वाण प्राप्त करता है.

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत

13. गुरु व्रत

जैन धर्म में तीन गुरुव्रतों का पालन करना अनिवार्य है. ये तीन गुरूव्रत- दिग्व्रत, अनर्थदंडव्रत तथा देशव्रत है. दिग्व्रत का मतलब प्रत्येक दिशा में एक निश्चित दूरी का निर्धारण करना जिसके आगे भ्रमण करने के लिए अपने जीवन काल में नहीं जाना चाहिए. अनर्थदंडव्रत का मतलब पाप में वृद्धि करने वाली प्रयोजनहीन वस्तुओं का त्याग करना तथा देशव्रत का मतलब समय के अनुकूल भ्रमण की दूरी में और कमी करना.

14. शिक्षाव्रत

जैन धर्म में चार शिक्षाव्रतों का भी उल्लेख है. ये शिक्षाव्रत हैं:- अतिथि संविभाग, सामयिक, प्रोषोगोपवास तथा भोगोपभोगोपपरिमाण व्रत. अतिथि संविभाग का तात्पर्य पूजा और दान दक्षिणा तथा अतिथियों को भोजन कराना. सामयिक का मतलब पापों से मुक्त होकर चिंतन करना. प्रोषोगोपवास का मतलब है सप्ताह में एक बार उपवास एवं व्रत रखना तथा भोगोपभोगोपपरिमाण का मतलब निश्चित मात्रा में भोजन करना.

15. तीर्थंकरों की उपासना करना

जैन धर्म ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में नहीं मानते हैं लेकिन वे महापुरुषों की पूजा करना आवश्यक मानते हैं. जैन धर्म में ईश्वर का स्थान पर तीर्थकरों की पूजा आराधना की जाती है क्योंकि उनमें ईश्वर के समस्त गुण विद्यमान हैं. अतः प्रेरणा व मार्गदर्शन के लिए जैन धर्म में तीर्थंकरों की उपासना को अति आवश्यक माना जाता है.

इन्हें भी पढ़ें:

Note:- इतिहास से सम्बंधित प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल रहे हैं तो कृपया कमेंट बॉक्स में कमेंट करें. आपके प्रश्नों के उत्तर यथासंभव उपलब्ध कराने की कोशिश की जाएगी.

अगर आपको हमारे वेबसाइट से कोई फायदा पहुँच रहा हो तो कृपया कमेंट और अपने दोस्तों को शेयर करके हमारा हौसला बढ़ाएं ताकि हम और अधिक आपके लिए काम कर सकें.  

धन्यवाद. 

Leave a Comment

Telegram
WhatsApp
FbMessenger