प्रथम चीन-जापान युद्ध (1894-95)
प्रथम चीन-जापान युद्ध (1894-95) के परिणाम और महत्व विश्व इतिहास के अध्ययन के लिए बहुत महत्व रखता है. इस युद्ध में चीन की करारी हार हुई थी. प्रथम चीन – जापान युद्ध ( 1894 – 95 ) में चीन की पराजय यूरोपीय देशों को हैरान कर देने वाली थी. इससे पहले सुसुप्त आजकर की संज्ञा दी जाती थी. इसे छेड़ने की हिम्मत यूरोपीय देश भी आसानी से नहीं करती थी. चीन के एक छोटे से पडोसी राज्य ने उसे हराकर जिस प्रकार शिमोन्स्की की संधि करने पर मजबूर कर दिया, ये दुनिया को हैरान कर देने वाली घटना थी.
प्रथम चीन-जापान युद्ध के परिणाम और महत्व
1. जापान के प्रभाव में वृद्धि
इस युद्ध के परिणाम से सबसे ज्यादा जापान को लाभ पहुँचाया. वह भी एक महाशक्ति के रूप में उभरा. शिमोन्स्की की संधि के परिणामस्वरूप उसे अपार धनराशि प्राप्त हुई. उसने उसे अपने देश के विकास में लगाया. उसे फलमोसा, पेस्काडोर्स, और लियातुंग प्रायदीप जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र प्राप्त हुए. ये क्षेत्र जापान के लिए सामरिक और आर्थिक दृश्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण थे. इस जीन के बाद जापान सैन्य महत्व को जान गया और अपनी सेना को और शक्तिशाली बनाने की दिशा में काम लगा. अब उसकी गिनती विश्व के महशक्तियो में होने लगी थी. विश्व ने जापान को ने उगते सूर्य के रूप में देखा.
2. चीन का पतन
इससे पहले चीन की पहचान यूरोपीय देशों के बीच एक सुषुप्त अजगर की तरह होती थी जिसे छेड़ना मतलब अपनी मौत हो दावत देना था. इसीलिए यूरोपीय शक्तियां भी इसे छेड़ने से डरती थी. लेकिन इस युद्ध में चीन की पराजय ने चीन के खोखलेपन को स्पष्ट कर दिया। इसके बाद यूरोपीय देशों में चीन के प्रति ड़र ख़त्म हो गई और वे चीन में खुलकर लूट- खसोट करना आरम्भ कर दिए. इसके अलावा चीन के जनता में भी इसका प्रभाव पड़ा. वे चीन की सरकार के विरोध में खुलकर आने लगे. विद्रोहों को बढ़वा मिला. बॉक्सर विद्रोह और 1911 में होनेवाली चीन की क्रांति में भी काफी यह युद्ध जिम्मेवार है.
3. यूरोपीय देशों में हलचल
शिमोन्स्की की संधि के परिणामस्वरूप जापान को जिस प्रकार आपार धनराशि और सामरिक रूप से महत्व रखे वाले क्षेत्र मिल जाने से यूरोपीय देशों में हलचल मच गई. उनमें जापान की बढ़ती ताकत का भय छा गया. इसका सबसे ज्यादा प्रभाव रूस, फ्रांस और जर्मनी में देखी गई. मंचूरिया में जापान के बढ़ते प्रभाव को देखकर रूस काफी चिंतित हुआ क्योंकि इसकी सीमा रूस से टकराती थी. अत: उसने फ्रांस और जर्मनी के साथ मिलकर जापान पर लियाओतुंग छोड़ने का दबाव डाला. इधर अमेरिका ने भी स्पष्ट कर दिया की चीन के साथ जापान का बढ़ता संधर्ष भविष्य में जापान के लिए खतरनाक साबित सकता है. अत: इस देशों के दबाव में जापान ने 8 नवम्बर 1895 को विवश होकर लियाओतुंग छोड़ दिया. लेकिन इस युद्ध ने जापान के महत्व को स्पष्ट दिया.
4. आंग्ल-जापान संधि
लियाओतुंग की संधि के खिलाफ ब्रिटेन ने अलग रखा था. इससे जापान से अनुमान लगा लिया कि भविष्य में ब्रिटेन उसका अच्छा सहयोगी बन सकता है. इधर ब्रिटेन भी जापान को रूस के प्रतिद्वंदी के रूप में जापान को खड़ा करने की संभावनाओं पर विचार कर रहा था. ऐसे में दोनों देश एक-दूसरे के करीब आ गए और दोनों देशों के बीच 1992 को आंग्ल-जापान की संधि हुई.
5. रूस-जापान युद्ध
शिमोन्स्की की संधि का रूस ने कड़ा विरोध किया था. इसके बाद उसके दबाव में जिस प्रकार जापान को लियाओतुंग छोड़ना पड़ा, उसे जापान कभी भूल नहीं सकता है. उसने रूस को अपना कट्टर दुश्मन मान लिया था. अत: जापान रूस को सबक सिखाना चाहता था. अत: ये युद्ध ने 1904- 04 में होनेवाली रूस-जापान युद्ध की पृष्टभूमि तैयार कर दी थी.
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इन्हें भी पढ़ें:
- द्वितीय चीन-जापान युद्ध (1937) के कारणों सहित परिणाम एवं महत्व का वर्णन करें
- 1904-05 ई. के रूस-जापान युद्ध के कारण और परिणामों पर प्रकाश डालिए
- 1921-22 में हुए वाशिंगटन सम्मलेन में हुए संधियों, परिणामों और महत्व का वर्णन करें
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