मथुरा कला की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए

मथुरा कला

जिस समय गंधार में गांधार शैली का विकास हो रहा था, लगभग उसी समय काल में मथुरा में भी एक नवीन शैली का अविर्भाव होना शुरू हुआ. इस शैली का केंद्र मथुरा होने के कारण उसे मथुरा कला के नाम से जाना जाता है. मथुरा में भी महात्मा बुद्ध तथा बोधिसत्वों की मूर्तियों का निर्माण हुआ. डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार महात्मा बुद्ध की पहली मूर्ति का निर्माण मथुरा कला के अंतर्गत ही मथुरा में हुआ. मथुरा कला पर गांधार शैली का प्रभाव है अथवा नहीं, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है. बहुत से पश्चिम इतिहासकारों का विचार है कि मथुरा कला, गांधार कला से प्रभावित है. डॉ. वोगेल ने लिखा है कि मथुरा कला पर यूनानी कला की सीधा प्रभाव तो नहीं हुआ था बल्कि उसने गंधार कला से प्रेरणा प्राप्त की थी. मार्शल ने भी इस मत का समर्थन करते हुए लिखा है कि कुषाण काल में मथुरा कला का आविर्भाव प्राचीन भारतीय कला तथा उत्तर पश्चिम की कला अर्थात गांधार कला के सम्मिश्रण से हुआ.

मथुरा कला की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए

दूसरी ओर बहुत से पश्चिमी तथा भारतीय इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते. उनके अनुसार दोनों अलग-अलग कला है. स्मिथ के अनुसार मथुरा कला और गांधार कला में बहुत कम समानताएं है. दोनों कलाएं अलग-अलग शैली की कला प्रतीत होती है. इस प्रकार स्मिथ मथुरा कला पर गांधार कला का कोई प्रभाव को स्वीकार नहीं करते हैं. क्रिस्टल्स हम्फ्री ने भी स्मिथ के इस मत का समर्थन किया है. रालिन्सन ने भी वोगेल और मार्शल के इन मतों की आलोचना करते हुए लिखा है कि उसी समय समकालीन कला का एक विशुद्ध देशी संप्रदाय, जिसका भरहुत के सांची से उद्भव हुआ था, मथुरा, बीटा, बेसनगर तथा अन्य केद्रों में प्रचलित था, पहले यह धारणा थी कि बुद्ध, महावीर और हिंदू देवताओं की मूर्ति का निर्माण प्रारंभ विदेशी प्रभाव के कारण हुआ था. परंतु अब अधिकांश विद्वान इस मत पर सहमत है कि इसका उद्धव मथुरा के देसी कलाकारों के द्वारा ही किया गया था. डॉ. निहार निरंजन रे ने भी मथुरा कला को भारतीय कला ही मानते हैं. उनका विचार है कि मथुरा की प्राचीन मूर्तियां भरहुत की कला से संबंधित है जो गांधार कला से पूर्व की है.

मथुरा कला की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए

विभिन्न मतों के अध्ययन करने के पश्चात ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि मथुरा कला का उद्भव भरहुत और सांची की कला से हुआ था, परंतु बाद में मथुरा कला पर गांधार कला का भी थोड़ा बहुत प्रभाव हुआ. मथुरा बौद्ध, जैन और ब्राह्मण तीनों धर्म का केंद्र था.  इसीलिए यहां तीनों धर्म से संबंधित मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं. मथुरा कला का स्वर्ण युग कुषाण सम्राट कनिष्क,  हुविष्क और वासुदेव का राज्यकाल था.

मथुरा कला की प्रमुख विशेषताएं

मथुरा कला के अंतर्गत बौद्ध धर्म संबंधी मूर्तियों में महात्मा बुद्ध तथा बोधिसत्वों की मूर्तियां है. इन मूर्तियों में महात्मा बुद्ध के जीवन के प्रमुख घटनाओं का चित्र किया गया है. महात्मा बुद्ध की मूर्तियां और ऊर्ध्ववस्त्र और अधोवस्त्र धारण किए हुए हैं.  महात्मा बुद्ध का सर मुंडित है और चेहरे पर आध्यात्मिकता एवं भाव प्रदर्शित किए गए हैं. मुख के चारों ओर प्रभामंडल है जो अलंकृत है. मथुरा कला के अंतर्गत कुषाण सम्राटों, राजकुमारों और सरदारों की मूर्तियों का भी निर्माण किया गया. कुषाण शासक कनिष्क और विमकैडफिसेस की मस्तक रहित प्रतिमाएं प्राप्त हुई है. कनिष्क की मूर्ति,  कला की दृष्टि से अत्यंत उच्च कोटि की है.  कनिष्क को घुटने तक कोट और पांव में जूते पहने दिखाया गया है. कनिष्क का दायां हाथ गदा पर है और बाएं हाथ में तलवार है. यह मूर्ति 67 इंच ऊंची है.

बौद्ध मूर्तियों के अतिरिक्त ब्राह्मण और जैन देवी-देवताओं की मूर्तियां भी मथुरा कला के अंतर्गत बनाई गई. ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, कार्तिकेय, इंद्र, अग्नि, सूर्य, कृष्णा, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, दुर्गा आदि की मूर्तियां भी मिलती है. जैन तीर्थंकरों की भी अनेक मूर्तियां प्राप्त हुई है. इसके अतिरिक्त अनेक यश-यक्षिणियों की मूर्तियां भी मिली है. इन पर भी गांधार कला का प्रभाव दिखाई देता है. यक्ष यक्षणियों की मूर्ति में केंद्रीय शपरकता है. ये मूर्तियां चित पर प्रभाव कम डालती है तथा अत्यंत कामुक हैं.

मथुरा कला की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए

मथुरा कला के अंतर्गत मूर्तियों का निर्माण बालुए पत्थर से किया गया है. विद्वान मथुरा कला को उच्च कोटि की कला के रूप में स्वीकार करते हैं. डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने मथुरा कला की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि जब भी हम मथुरा कला को देखते हैं तो उनकी मौलिकता और विविधता की गहरी छाप मन में पड़ती है और शिल्पियों की प्रतिभा से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जाता. मथुरा के शिल्पियों ने आगे आने वाले युगों के लिए बहुत कुछ मौलिक रचना कर दिखाएं. अत: यह कहना अतियुक्ति न होगी कि भारतीय कला का इतना सृजनात्मक गुण किसी अन्य किसी युग में देखा नहीं गया.

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