मनसबदारी व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? | मनसबदारी क्या है?

मनसबदारी व्यवस्था

मनसबदारी का अर्थ 

मनसब एक अरबी शब्द है. इसका अर्थ पद, प्रतिष्ठा, पदवी या दर्जा होता है. मुगल काल में यह किसी व्यक्ति का अधिकारी वर्ग में उसके स्थान, वेतन तथा राज दरबार में उसकी प्रतिष्ठा एवं स्थान को निर्धारित करता था. मनसबदारी प्रणाली मुगल शासक अकबर के द्वारा आरम्भ किया गया एक प्रशासनिक प्रणाली थी. मुगलकालीन सैनिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था का मूल आधार मनसबदारी व्यवस्था ही थी. इस व्यवस्था को 1566 ई. में लागू किया गया था. इस व्यवस्था के अनुसार किसी भी व्यक्ति को 10 विभाज्य संख्या का मनसबदार नियुक्त किया जाता था जिसका अर्थ है वह उस संख्या के बराबर घोड़े को रखने वाला व्यक्ति होता था. घोड़े को दागने की प्रथा भी अकबर से पहले सी शेरशाह ने आरंभ किया था. अकबर द्वारा लागू की गई मनसबदारी व्यवस्था में भी दशमलव प्रणाली और दागने का प्रयोग किया जाता था किंतु उसमें अनेक संशोधन करके इस व्यवस्था को और अधिक श्रेष्ठ बनाया गया.

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मनसबदारों की नियुक्ति का नियम

मुगल काल में मनसबदारों की नियुक्ति के लिए कोई निश्चित नियम नहीं था और न ही कोई परीक्षा आदि ली जाती थी. सम्राट स्वयं ही उनकी नियुक्ति करता था. उसमें केवल योग्यता का ध्यान रखा जाता था. मनसबदारों की नियुक्ति की विधियां सरल थी. मनसब के इच्छुक व्यक्तियों को अमीर बक्शी सम्राट के सम्मुख प्रस्तुत करता था. कभी-कभी सूबेदार और अन्य महत्वपूर्ण सरदार सरदार भी किसी-किसी व्यक्ति के लिए संस्तुति करते थे. इच्छुक व्यक्ति की योग्यताओं से अमीर बक्शी, सम्राट को अवगत कराता था. सम्राट, वकील एवं अमीर बक्शी के परामर्श से उस व्यक्ति को उसकी योग्यता अनुसार मनसब प्रदान करता था. सम्राट की स्वीकृति के पश्चात उसे व्यक्ति की हकीकत तैयार की जाती थी तथा उसकी प्रति दीवान तथा सैन्य सलाहकार को भेजी जाती थी. तत्पश्चात फरमान जारी किया जाता था. इस प्रकार नियुक्त मनसबदार को निर्धारित संख्या में घुड़सवार रखने होते थे. इनका समय-समय पर निरीक्षण भी किया जाता था.

मनसबदारी व्यवस्था

मनसबदारों की नियुक्ति के संदर्भ में अबू फजल ने आईना-ए-अकबरी में लिखा है कि सम्राट एक ही नजर में व्यक्ति की प्रतिभा को पहचान जाते हैं और उसे उसकी योग्यता के अनुसार मनसब प्रदान करते हैं. वह आगे वह लिखता है कि मुश्किल से ही ऐसा कोई दिन गुजरता है जिस दिन योग्य एवं इमानदार व्यक्ति को मनसब प्रदान न किया जाता हो. बहुत से लोग अरब और ईरान जैसे दूर-दूर देश से आते हैं और उन्हें सेवा में मनसब देकर सम्मानित किया जाता था. मनसबदारों की पदोन्नति के लिए भी कोई निश्चित नियम नहीं था. उनकी पदोन्नति पूरी तरह सम्राट की इच्छा पर निर्भर करती थी. सामान्यतया मानसबदारों की पदोन्नति उन पदाधिकारियों, सूबेदारों, राजकुमारों आदि की संस्तुति पर निर्भर करती थी जिनके अधीन वे कार्य करते थे. मनसबदारों की पदोन्नति कुछ विशेष अवसरों पर जैसे कि युद्ध से पूर्व अथवा उपरांत, उत्सव, विशिष्ट उपलब्धियों पर, वर्ष के प्रथम दिन अथवा सम्राट के राज्याभिषेक के दिन प्रदान की जाती थी.

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मनसबदारी व्यवस्था लागू करने के कारण

अकबर ने शासक बनने के पश्चात शीघ्र ही अनुभव कर लिया था कि सेना और प्रशासन में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है. उसने यह भी महसूस किया कि एक सुदृढ शासन की स्थापना के लिए एक स्पष्ट नियमों पर आधारित प्रशासनिक व्यवस्था को लागू किया जाने अनिवार्य है जिससे प्रशासन से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्थिति, शासन के प्रति अपने उत्तरदायित्व आदि की जानकारी हो तथा योग्य व्यक्तियों को उन्नति के समुचित अवसर प्राप्त हो सके. इस प्रकार सेवा और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने और उसे सक्षम बनाने के उद्देश्य से अकबर ने यह व्यवस्था को लागू करने का निर्णय लिया. इस संदर्भ में लेनपुल का कथन है कि अकबर ने सैनिक व्यवस्था के तमाम पुराने संकटों को दूर करने और भ्रष्टाचार मिटाने का यथासंभव प्रयास किया. शासन प्रबंध और कर्मचारी वर्ग में कार्य कुशलता एवं अनुशासन स्थापित करने हेतु सरकार के सैनिक ढांचे का संगठन मनसबदारी पद्धति पर किया गया.

मनसबदारी व्यवस्था

मनसबदारों की श्रेणियां

अबू फजल द्वारा आईना ए अकबरी में मनसबदारों की 66 श्रेणियां का उल्लेख किया है. लेकिन मनसबदारों की सूची में मात्र 33 श्रेणियां का उल्लेख मिलता है. विभिन्न श्रेणियां में सैनिकों की संख्या निर्धारित करने के लिए दाशमिक प्रणाली को आधार बनाया गया था. अर्थात सैनिकों की संख्या 10 से विभाजित होने वाली संख्या पर ही आधारित थी. छोटी संख्या का अधिकारी छोटे पद का और बड़ी संख्या का अधिकारी बड़े पद का होता था. अकबर ने प्रारंभ में 10 से 10,000 तक के मनसब नियुक्त किए थे.  5,000 या उससे ऊपर का मनसब सामान्यतया राजकुमारों को ही दिया जाता था. बाद में जब 12,000 का भी मनसब दिया जाने लगा तो राजकुमारों को 7,000 से ऊपर तथा अन्य सरदारों को 7000 तक के मनसब दिए जाते थे. शाहजहां और औरंगजेब के काल में 60,000 तक के मनसब दिए जाने लगे. जिस समय अकबर के द्वारा मनसबदारी व्यवस्था लागू की गई, उस समय जात मनसब का उल्लेख मिलता है. बाद में 1594-95 ई. के दौरान सवार मनसब का भी प्रचलन आरंभ हो गया. इन दोनों शब्दों का अलग-अलग लेख मिलने से स्पष्ट है कि उनका अर्थ भिन्न था. उनके अर्थ के विषय में इतिहासकार अत्यधिक मतभेद है. विभिन्न मनसबदारों के मनसब का जब मुग़ल दस्तावेजों में उल्लेख किया गया तो पहले जात मनसब तथा उसके बाद में सवार मनसब का उल्लेख किया गया है. इससे प्रतीत होता है कि जात मनसब का सवार मनसब से अधिक महत्व था.

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