मुगलकालीन भू-राजस्व व्यवस्था पर प्रकाश डालें | मुगलकालीन राजस्व प्रणाली कैसी थी?

मुगलकालीन भू-राजस्व व्यवस्था

मुगलकालीन भू-राजस्व व्यवस्था या मुगलकालीन राजस्व प्रणाली की खूबियों के लिए आज के इतिहासकारों के लिए भी अध्ययन का विषय है. मुगल काल में राज्य की आय का प्रमुख स्रोत कृषि ही था. बाबर एवं हुमायूं ने भी सल्तनतकालीन मालगुजारी प्रथा को जारी रखा. इसके बाद शेरशाह सूरी ने मालगुजारी प्रथा को सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया. अकबर ने भी शेरशाह सूरी की मालगुजारी व्यवस्था को अपनाया तथा उसमें अनेक सुधार किया. शेरशाह ने उपज का एक तिहाई भाग मालगुजारी के रूप में निश्चित किया. अकबर ने सैद्धांतिक रूप से उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया, लेकिन उसमें कुछ संशोधन करने का प्रयास किया. इस कार्य के लिए उसमें 1560 ई. से 1580 ई. के अवधि में अपने राजस्व विभाग में अनेक विशेषज्ञों की नियुक्ति की.

मुगलकालीन भू-राजस्व व्यवस्था

अकबर की राज भू-राजस्व व्यवस्था के मुख्य बिंदुएं:

1. प्रशासनिक विभाजन

अकबर द्वारा राजस्व में पर्याप्त निरीक्षण करने के बाद जगीरों की भूमि को खालसा भूमि में परिवर्तित कर दिया. इस प्रकार परिवर्तित भूमि को 182 क्षेत्र में विभक्त किया गया. इसके पीछे मुख्य उद्देश्य यह था कि इससे एक करोड़ दाम का राजस्व उपलब्ध हो सके. इस राजस्व वसूली के लिए करोड़ी नामक अधिकारी रखा गया.  उसकी सहायता के लिए कारकून एवं फोतेदार नियुक्त किए गए.  करोड़ी का दायित्व उपजाई उपजाऊ भूमि की वृद्धि करना और राजस्व वसूली कर शाही खजाना में जमा करना था.

बदायूंनी के अनुसार यह व्यवस्था ठीक तरीके से लागू नहीं उपाय क्योंकि इससे करोड़ी नमक अधिकारियों ने गबन एवं भ्रष्टाचार में पड़कर अव्यवस्था को जन्म दिया. मोरलैंड के अनुसार कुछ समय के लिए इस कारण भ्रष्टाचार एवं जबरदस्ती वसूली का युग स्थापित हो गया. इस स्थिति को देखते हुए सुव्यवस्था स्थापित करने का कार्य अकबर ने पुन: टोडरमल को सौपा. सीकरी में अकबर के शयनकक्ष के समीप भी एक राजस्व अभिलेखागार का कार्यालय बनाया गया.

मुगलकालीन भू-राजस्व व्यवस्था

2. दससाला (दहसाला) बंदोबस्त

राजस्व व्यवस्था में अकबर के द्वारा किया गया महत्वपूर्ण सुधार दससाला बंदोबस्त था. दससाला प्रबंधन से का तात्पर्य था कि पहले दस वर्षों के मूल्यों का औसत मिलाकर लगान निश्चित करना था. उपज का औसत निकालने के लिए परगना को एक इकाई माना गया तथा दस्तूर के आधार पर मूल्य निकल गया. यह दससाला प्रबंध परिवर्तनशील था. यह जब्ती प्रणाली ही थी. मालगुजारी नकद थी. राजस्व का आधार भी उपज का 2/3 भाग ही था. अब कृषक वर्ग राजस्व विभाग से सीधे संपर्क स्थापित कर सकता था. अब दीवानी कार्य को फौजदारी कार्य से पृथक कर दिया गया. अतः अब प्रांतीय राजस्व अधिकारियों को दीवान कहा जाने लगा. अब उसका संबंध केंद्रीय राजस्व विभाग से सीधे जुड़ गया. भ्रष्ट अधिकारियों को दंडित करने की नीति अपनी गई.

3. भूमि के वर्गीकरण

अकबर ने उर्वरता के अनुसार भूमि को चार भागों में विभक्त किया. 1. पोलस (क) उत्तम श्रेणी और निम्न श्रेणी 2. पड़ौती उत्तम श्रेणी और निम्न श्रेणी, 3. चांचर 4. बंजर भूमि. भूमि का वर्गीकरण करने के पश्चात उत्तम और निम्न पोलास एवं पड़ौती भूमि के औसत निकाली जाती थी. औसत निकलते समय सिंचाई की व्यवस्था का भी ध्यान रखा जाता था.

मुगलकालीन भू-राजस्व व्यवस्था

मालगुजारी की व्यवस्थाएं

अकबर ने मालगुजारी की तीन व्यवस्थाएं निर्धारित की थी:-

1. गल्ला बक्शी- इस प्रथा के अनुसार फसल का कुछ भाग सरकार ले लेती थी.

2. नस्क – इस प्रथा में भूस्वामी एवं सरकार के बीच लगान का समझौता हो जाता था.

3. जब्ती – इस प्रथा में जिस प्रकार की फसल खेत में बोई जाती थी, उसी के अनुसार लगान निश्चित होता था. कृषक इन तीनों में से किसी भी प्रणाली को स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र था.

राजस्व की दरें:

शेरशाह के शासनकाल में प्रतिवर्ष गल्ले की कीमतों के आधार पर राजस्व की नकद राशि निर्धारित किया जाता था. इस प्रणाली का सबसे बड़ा दोष इसमें होनेवाली अनावश्यक विलंब एवं अनावश्यक राशि आशिक व्यय था. टोडरमल ने इस दोष को देखते हुए दसवर्षीय बंदोबस्त निश्चित किया. एक बार निर्धारित राजस्व परिवर्तन नहीं हो सकता था. गन्ने तथा नील की दरें गेहूं और जौ से भिन्न थी. कृषक नकद या उपज, किसी भी रूप में कर देने को स्वतंत्र था.

मुगलकालीन भू-राजस्व व्यवस्था

राजस्व अधिकारीयों के कार्यों के सम्बन्ध में निर्देश:

मुगल शासक अकबर ने कृषकों का प्रशासन से सीधे संपर्क स्थापित करने के उद्देश्य से राजस्व अधिकारियों के लिए आवश्यक निर्देश जारी किए थे. यदि राजस्व अधिकारी निश्चित धनराशि से अधिक आवास शुरू करता तो वह दंड का भागी होता था. राजस्व अधिकारी की सहायता के लिए केवल एक लिपिक रक रखा गया. अकबर ने घोषणा की कि सभी खालसा परगना की भूमि की पैदाइश की जाए तथा गरीब शिक्षकों को अग्रिम ऋण दिया जाए. यह ऋण उनसे क़िस्त के रूप में लिया जाए यह व्यवस्था कर दी गई कि सभी परगनों में खड़ी फसलों की औसत जांच करने वाले निकालेंगे. परगना के अधिकारियों को प्रतिवर्ष क्षतिग्रस्त फसलों का ब्यौरा भेजना अनिवार्य कर दिया. फसलों के क्षतिग्रस्त होने से किसानों को मुआवजा देने का निर्देश दिया गया. प्रत्येक अधिकारी के कार्यों का ब्यौरा केंद्रीय विजारत के द्वारा मूल्यांकित किया जाएगा. राजस्व विभाग से संबंधित अधिकारियों को नई दर से वेतन देने की घोषणा की गई. जांचकर्ता को 1 दिन में 1 दाम, अमीन को 4 दाम प्रतिदिन, लिपिक को 2 दाम प्रतिदिन निर्धारित किया गया. 1 रूपया 40 दाम के बराबर था. एक स्वर्ण मुद्रा 40 दाम के बराबर थे. यह निश्चित किया गया कि रबी की फसल में 250 बीघा जमीन प्रतिदिन एवं खरीफ की फसल में 200 बीघा जमीन प्रतिदिन अवश्य नापी जाए. पटवारी की सहायता से राजस्व वसूली समय पर होने का निर्देशित दिए गए. इस बात पर जोर दिया गया कि राजस्व चालू सिक्कों में देय हो, किंतु पुराने सिक्के भी निर्धारित मूल्य के आधार पर चल सकते थे.

मुगलकालीन भू-राजस्व व्यवस्था

अकबर के द्वारा राजस्व व्यवस्था का पर्याप्त संशोधन के भरसक प्रयास किए गए. अकबर पूर्ण रूप से घूसखोरी को रोक नहीं सका लेकिन अधिक लगान होने पर भी कृषक उनकी लगान व्यवस्था से संतुष्ट थे. लगान निश्चित हो जाने से कृषक और सरकार दोनों चिंता मुक्त हो गए. अकबर ने जजिया कर, जकात कर, तीर्थ यात्रा कर, वृक्ष कर, बाजार कर, गृह कर आदि को माफ कर दिया था. इससे कृषकों पर लगान के अधिकता का भार नहीं पड़ा. अकाल और प्राकृतिक आपदाओं के समय किसानों के लगान में भारी कमी कर दी जाती थी. उसकी इस व्यवस्था से राजकोष में भी वृद्धि हुई. मोरलैंड के अनुसार अकबर के साम्राज्य के अंतिम वर्षों में राजस्व की आय 9 करोड रुपए थे. यही कारण था कि अकबर के राजस्व व्यवस्था के संबंध में मोरलैंड ने लिखा है यदि उसे समय स्तर का मूल्यांकन किया जाए तो आर्थिक दृष्टिकोण से उसका शासन सराहनीय था क्योंकि उसके राजकोष में वृद्धि भारी होती गई. जब उसने पंच तत्व प्राप्त किया तब वह संसार का सबसे समृद्ध शासक था. अकबर के द्वारा स्थापित व्यवस्था में जहांगीर के काल में दोष आने आरंभ हो गए. अतः उत्तर कालीन मुगल शासकों के शासनकाल में तो कृषकों की स्थिति दयनीय हो गई. कृषकों के द्वारा भूमि छोड़कर भागना एवं औरंगजेब के काल में सतनामियों एवं जाटों का विद्रोह इसके प्रबल प्रमाण है. किंतु इसके लिए अकबर की भू-राजस्व व्यवस्था उत्तरदाई नहीं थी. परंतु अकबर के पश्चात मुगल शासकों की नीति ही उत्तरदाई थी.

भू-राजस्व व्यवस्था का कृषकों पर प्रभाव

मुगल सम्राट अकबर की मुगलकालीन भू-राजस्व व्यवस्था की नीति को उसके उत्तराधिकारी जहांगीर ने भी जारी रखा. अकबर के शासनकाल में राज्य उपज का 1/3 भाग भू-राजस्व के रूप में वसूलत था. परंतु यह दर भिन्न-भिन्न क्षेत्र में अलग-अलग होते थे. जैसे कि गुजरात में कुल उपज का 1/2 भाग, राजपूताना में उपज का 1/7 भाग से 1/8 भू-राजस्व के रूप में वसूल किया जाता था. मुगल भूमि व्यवस्था में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन शाहजहां के शासनकाल में भी हुए. शाहजहां के शासनकाल में सामान्य भूमि राजस्व की दर कुल उपज का 1/2 भाग कर दी. परंतु जिस भूमि पर कुओं से सिंचाई होती थी, वहां पर भू-राजस्व की 1/3 भाग रखी गई. शाहजहां के शासनकाल में लगभग 70% भूमि जागीर के रूप में प्रदान किए और राजस्व वसूलने के लिए ठेकेदारी प्रथा आरम्भ किया गया. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि राज्य और कृषकों का प्रत्यक्ष संपर्क होना बाधित हो गया. इससे राज्य में किसानों के प्रति उदासीनता की स्थिति आ गई. इस ने कालांतर में एक गंभीर समस्या का रूप धारण कर लिया. अब किसानों को भू-राजस्व के अलावा कई प्रकार के उपकर भी देने पड़ते थे. जब भी तन नमक उपकार भूमि की पैदाइश के लिए प्रतिबिगहा एक दम किधर से देना पड़ता था. जाबिताना नामक उपकर भूमि कि पैदाइश के लिए प्रति बीघा एक दाम कि दर से देना पड़ता था. जरीबाना और महस्सिलाना जैसे उपकर क्रमशः 2.5% और 5% की दर से देने पड़ते थे. इन उपकरों का भार कृषकों पर पड़ता था. इससे उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई थी.

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