मुगलकालीन व्यापार एवं वाणिज्य पर प्रकाश डालिए | मुगलकालीन व्यापार एवं वाणिज्य

मुगलकालीन व्यापार एवं वाणिज्य

मुगल शासन के स्थायित्व एवं सुदृढ़ स्थिति के कारण साम्राज्य की आर्थिक स्थिति मजबूत अवस्था में थी. इसका सकारात्मक प्रभाव आंतरिक और बाह्य व्यापार एवं वाणिज्य में भी पड़ा पड़ा. मुगल काल में नगरीकरण का तेजी से विकास हुआ और यातायात के साधनों तथा सुरक्षा के उपायों में भी तेजी से विकास हुआ. व्यापारी अपने उत्पादों को सुरक्षित और सुगमिता पूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाते थे. मुद्रा व्यवस्था के प्रचार ने भी व्यापार एवं वाणिज्य को प्रगति प्रदान की. मुगल शासकों में यातायात की सुविधाओं और सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया तथा सड़कों, सरायों आदि के निर्माण को प्रोत्साहन प्रदान किया. मुगल काल में अनेक यूरोपीय व्यापारिक शक्तियों जैसे कि पुर्तगाली, अंग्रेजी, डच, फ्रांसीसी आदि भारत के प्रमुख औद्योगिक एवं व्यापारिक क्षेत्र में स्थापित हो चुकी थी. इन यूरोपीय व्यापारियों ने मुगल काल के व्यापार एवं वाणिज्य की उन्नति में अपना विशेष योगदान दिया.

मुगलकालीन व्यापार एवं वाणिज्य

मुगल शासक व्यापारियों को सुरक्षा देने और सुविधा देने के लिए कटिबंध थे. उन्होंने अपने स्थानीय उत्तरदायित्व के सिद्धांत के आधार पर व्यापारियों की सुरक्षा का दायित्व उस क्षेत्र विशेष से संबंधित मुगल अधिकारियों को दिया. यदि व्यापारियों को सुरक्षा की कमी के चलते अपनी माल की हानि उठानी पड़ती, तो राज्य संबंधित व्यापारी को क्षतिपूर्ति प्रदान करने का भी व्यवस्था करता था. इसके अलावा व्यापारी सराफा के माध्यम से अपने माल का बीमा करवा सकते थे. इस कारण उन्हें जोखिम उठाने के लिए भी प्रोत्साहन मिला. मुगल शासक भू-राजस्व को नकदी में लेना पसंद करते थे. इस प्रवृत्ति के चलते किसानों ने नगदी फसलों का उत्पादन प्रारंभ किया. नकदी फसलों ने भी व्यापार को प्रोत्साहन प्रदान किया. इस प्रकार नगरों, उद्योग धंधों, मुद्रा व्यवस्था, बैंकिंग व्यवस्था और यातायात के साधनों के विकास के चलते व्यापार एवं वाणिज्य में उल्लेखनीय प्रगति हुई. मुगल काल में आंतरिक एवं विदेशी दोनों प्रकार के व्यापार था.  व्यापार जल एवं स्थल दोनों मार्ग से होता था.

1. आंतरिक व्यापार

मुगल काल में आगरा में यमुना चंबल आदि नदियों से होकर व्यापार होता था. इस बात की जानकारी हमें आईना-ए-अकबरी से पता चलता है. आगरा से नमक, शीशा, अफीम, रूई, लोहा, कालीन एवं अच्छे किस्म के कपड़े देश के अन्य स्थानों को भेजे जाते थे. सूरत से साम्राज्य के उत्तर एवं दक्षिणी भागों में सामान लाया एवं भेजा जाता था. आगरा एवं सूरत के बीच संपूर्ण यातायात बुरहानपुर होकर होता था. इस युग में अहमदाबाद एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र हुआ करता था. अहमदाबाद अनाज की बड़ी-बड़ी 20 मंडियों के लिए प्रसिद्ध था. अहमदाबाद की मंदिरों में सीमावर्ती गांव से अनाज लाकर इकट्ठा किया जाता था. यहां के हिंदू व्यापारी अनाज के व्यापार करते थे. यह नगर नील तथा अच्छे रेशम के व्यापार के लिए भी प्रसिद्ध था. यहां के अच्छे प्रकार के रेशम की मांग आगरा में बहुतायत से थी.

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2. विदेशी व्यापार

मुगल काल में विदेशी व्यापार को भी पर्याप्त प्रोत्साहन मिला. सिंध स्थित लारी बंदरगाह से रूई का सामान एवं नील ईरान तथा अरब को निर्यात की जाती थी. प्रमुख बंदरगाह कैम्बे से प्रतिवर्ष 30 से 40 जहाज रेशमी एवं सूती कपड़े लेकर विदेश जाते थे.  नील, कागज, चमड़े का सामान, कच्चा चमड़ा, लोहा, अफीम, चीनी, अदरक, बहुमूल्य पत्थर, हींग तथा रूई विदेश को निर्यात की जाती थी. 17वीं सदी के पूर्वार्द्ध में कैम्बे से 10 लाख टन माल प्रतिवर्ष निर्यात होता था. नील के व्यापार में ईरान, यूरोप तथा आर्मेनिया के व्यापारी विशेष रुचि दर्शाते थे. अहमदाबाद से अरब, तुर्की और ईरान को कागज का निर्यात किया जाता था. सूरत बंदरगाह से रूई का सामान, नील, अफीम, गलीचे, चीनी मसाले तथा चंदन विदेशों को निर्यात होते थे तथा विदेशों से लौटते हुए ये जहाज सोने, चांदी और तांबे से भरे हुए आते थे. 1579-80 ई. में मुगल सम्राट के द्वारा पुर्तगालियों को व्यापारिक अनुमति प्राप्त दिए जाने के बाद पुर्तगालियों ने हुगली से जौनपुर के बने मोटे गलीचे, रेशमी कपड़े, गद्दे, शामियान और खेमा लगाने का सामान आदि ले जाना प्रारंभ कर दिया था.

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स्थल मार्ग में लाहौर से काबुल और मुल्तान से कंधार दो प्रमुख व्यापारिक मार्ग थे. कबूल को बाढ़ खर्चा काशगर बुक कंधार और ईरान से अनेक सड़के थी बुखारा से सड़क को कबूल मार्ग से होते हुए घोड़े और गुलाम ले जाते थे तब निर्णय के अनुसार एक वर्ष में बुखारा से काबुल मार्ग से होते हुए भारत को 50 हजार रूपए तक के घोड़े घोड़े का व्यापार होता था.  बहराइच का मारा काबुल के सदस्य महत्वपूर्ण नहीं था. भारत का चिन्ह और तिब्बत के साथ व्यापार होता था. प्रत्येक वर्ष व्यापारियों का एक काफिला आगरा से चीन जाता था.

मुगल काल में यूरोपीय व्यापार

जिस समय बाबर ने मुगल वंश नीव भारत में रखी थी, उस समय पश्चिम एवं दक्षिण भारत में पुर्तगाली अपनी शक्ति के विस्तार में संलग्न थे. 16 वीं शताब्दी में तो भारत के व्यापार पर उनका पूर्ण प्रभुत्व था. उनहोंने फारस की खाड़ी और लाल सागर के व्यापार पर अपना सिक्का जमा कर उन्होंने अरबों के व्यापार को पीट दिया था. 1572 ई. में पुर्तगाली व्यापारी अकबर के राज दरबार में उपस्थित हुए. पुर्तगालियों ने मुगल प्रशासन के साथ एक संधि की. इस संधि के अनुसार पुर्तगालियों ने मक्का जाने वाले भारतीय मुसलमानों की सुरक्षा का वचन दिया तो अकबर ने भी भारत में ईसाई धर्म के प्रचार की छूट दे दी. अकबर के शासनकाल में प्राप्त व्यापारिक अधिकार जहांगीर के शासनकाल में धूमिल पड़ गए थे. किंतु फादर जेरोम के द्वारा मध्यस्थ करने से जहांगीर से पुर्तगालियों के संबंध फिर से अच्छे हो गए. शाहजहां का शासनकाल इस दृष्टि से मधुर रहा किंतु औरंगजेब के शासनकाल कटुतापूर्ण रहा.

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पुर्तगालियों के व्यापारिक अधिपत्य को उस समय चुनौती मिली जब डचों ने 1602 ई. में स्टेटस जनरल के एक सनद द्वारा डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की. पुर्तगालियों ने मछली पत्तनम, नेगा पत्तनम, कासिम बाजार, पटना, बालासोर, कोचीन एवं सूरत में अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित कर लिए. कोरोमंडल तट, गंगा की निचली घाटी और गुजरात में अपनी बस्ती में बसा कर एवं कारखाने खोलकर डचों ने 17वीं शताब्दी में पुर्तगालियों की शक्ति को जबर्दस्त झटका दिया और पूरी व्यापार पर अपना सिक्का कायम कर लिया.

 

जिस समय पुर्तगाली एवं डच संघर्षरत थे, उस समय अंग्रेजों की दृष्टि भारत पर पड़ी. कैप्टन हॉकिंग प्रथम अंग्रेज यात्री था जो समुद्री मार्ग से सूरत पहुंच और जहांगीर के दरबार में उपस्थित हुआ. 1613 ई. में सूरत में अंग्रेजों को फैक्ट्री खोलने की अनुमति मिल गई. 1615 ई. में सर थॉमस रोग की जहांगीर से मुलाकात के पश्चात अंग्रेजों ने आगरा अहमदाबाद और भरूच में अपने कारखाने खोले. 1640 ई. में अंग्रेजों को सेंट कोर्ट जॉर्ज नामक किले बंद कारखाना बनाने में सफलता मिली. 1650-51 ई. में उन्होंने हुगली एवं कासिम बाजार में कारखाने खोले. 1680 ई. में उन्होंने सूरत के माल पर 85% चुंगी और औरंगजेब को देखकर पूर्ण भारत में स्वतंत्र व्यापार की अनुमति प्राप्त की. 1698 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कालीकट, गोविंदपुर एवं सुतानती ग्रामों की जमींदारी खरीदने में सफलता प्राप्त की. धीरे-धीरे अंग्रेजों ने भारतीय व्यापार पर अपना सिक्का जमा ही लिया.

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अंग्रेजों को भारतीय व्यापार पर अपना सिक्का जमाने में सबसे बड़ी चुनौती फ्रांसीसियों ने दी थी. 1664 ई. में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई. 1688 ई. में प्रथम फ्रेंच फैक्ट्री सूरत में और 1669 ई. में दूसरी फ्रेंच कंपनी मछलीपट्टम में स्थापित हुई थी. फ्रांसीसियों ने धीरे-धीरे पुडुचेरी और चंद्रनगर में भी अपनी बस्तियां बसा ली थी, किंतु अंततः अंग्रेजों से उन्हें पराजय स्वीकार करने पड़े. इस प्रकार कहा जा सकता है कि मुगल काल में पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसियों ने भी व्यापार करने में सफलता प्राप्त की थी, लेकिन इस आपसी प्रतिस्पर्धा में अंग्रेज विजय हुए.

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