मौर्यकालीन न्याय व्यवस्था का मूल्यांकन कीजिए

मौर्यकालीन न्याय व्यवस्था

मौर्य कालीन न्याय व्यवस्था अत्यंत सुव्यवस्थित एवं सुदृढ़ थी. न्याय के लिए उन्होंने अनेक न्यायालय स्थापित कर रखे थे. इन सभी न्यायालयों में सबसे बड़ा न्यायालय राजा का न्यायालय होता था. राजा का फैसला अंतिम एवं सर्वमान्य होता था. राजा अपने नीचे के सभी न्यायालय के आदेशों और निर्णय को रद्द अथवा बदल सकता था. न्यायिक व्यवस्था का सबसे छोटा न्यायालय ग्राम होता था. न्यायालय का सबसे छोटी इकाई को ग्रामिक कहा जाता था. ग्राम सभा की मदद से इस न्यायालय का संचालन किया जाता था. ग्राम एवं राजा के न्यायालय को छोड़कर अन्य सभी न्यायालय दो प्रकार के होते थे-धर्मीस्थीय न्यायालय तथा कंटकशोधन न्यायालय.
मौर्यकालीन न्याय व्यवस्था
 

1. धर्मीस्थीय न्यायालय

यह एक प्रकार की दीवानी अदालत न्यायालय होती थी इसमें तीन धर्मस्थ होते थे. इनको संपूर्ण धर्मशास्त्र का ज्ञान होता था. इस प्रकार के न्यायालयों में विवाह-मोक्ष, उत्तराधकार, गृह संबंधि मामले, क्रय-विक्रय, कृषि, ॠण, सड़क, धरोहर, मानहानि, हिंसा आदि के मामलों के विवादों का निपटारा करता था. 
मौर्यकालीन न्याय व्यवस्था

2. कंटकशोधन न्यायालय

कंटकशोधन न्यायालय में फौजीदारी मामलों का निर्णय होता था. इस प्रकार के न्यायालय के अध्यक्ष प्रदेष्टा कहलाते थे. इनकी संख्या तीन होती थी. ये न्यायलय कृषि, व्यापार  उद्योगों  बने नियमों की देखरेख  करती थी. ये न्यायलय  यह  सुनिश्चित सुनिश्चित करती थी कि जन-कल्याण के लिए बनाये गए ये नियम पूर्ण रूप से लागू हो तथा जनता इसका भरपूर फ़ायदा उठा सके. 
मौर्यकालीन न्याय व्यवस्था
 
मेगास्थनीज और यूनानी लेखकों के साहित्यों से पता चलता है कि मौर्य साम्राज्य का दण्ड व्यवस्था बहुत कठोर थी. चाणक्य के अनुसार अपराधी को उसके अपराध के आधार पर दण्ड मिले, न ज्यादा न कम. छोटे अपराधों के लिए आर्थिक दण्ड तथा गंभीर अपराधों के लिए अंग-भंग और मृत्युदंड थी. कहा जाता है कि इस दंड व्यवस्था के कारण मौर्य साम्राज्य में अपराध बहुत ही कम होती थी. इन बातों से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त मौर्या के द्वारा बनायी गई ये न्याय व्यवस्था अत्यंत सफल हुई और देश की अखंडता और शांति बनाये रखने में काफी सफल हुई. 

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