राजपूत कालीन राजनीतिक स्थिति
1. राजनीतिक भावना का अभाव
तत्कालीन भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय भावना का अभाव था. 12 वीं शताब्दी के आगमन तक भारतीय लोगों में राष्ट्रीयता भावना बिल्कुल कम हो गई थी. यही भारतीय राजनीतिक को अंदर से जर्जर बना रही थी. जनसाधारण में भी राष्ट्रीयता की भावना बिल्कुल खत्म हो चुकी थी. इसी के कारण राजपूत तुर्कों के विरुद्ध अपने पराक्रम को प्रदर्शित नहीं कर पाए और उन्हें बुरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा.
2. दोषपूर्ण उत्तराधकार नियम
तत्कालीन भारतीय राजनीतिक में उत्तराधिकारी के लिए बहुत ही दोषपूर्ण नियम था. उस समय वंश परंपरागत राजतंत्र शासन प्रणाली प्रचलित थी. इसी कारण सेनापति अथवा शासक की मृत्यु होने के बाद उसका पुत्र ही उसके स्थान पर नियुक्त किया जाता था, भले वो अयोग्य क्यों न हो. ऐसे में अपने राज्य अथवा सेना का कुशल संचालन नहीं कर पाते थे.
3. जनता को शासन से वंचित रखना
तत्कालीन शासन व्यवस्था में जनता को शासन से दूर रखा जाता था. इस कारण जनता में राजनीतिक उदासीनता उत्पन्न हो गई थी. साधारण जनता को इस बात से कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी कि उनका शासक कौन है. इसी वजह से किसी भी शासक को जनता का कोई समर्थन नहीं मिल पाता था. ऐसे में जनता और शासक के बीच में कोई मजबूत संबंध नहीं बन पाया.
4. सीमांत प्रदेशों के प्रति उदासीनता
तत्कालीन शासक अपने राज्य की सीमाओं की सुरक्षा के प्रति उदासीन रहते थे. उन्होंने अपनी सीमाओं की सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं किया. तत्कालीन भारतीय राजाओं ने पंजाब तक तुर्क आक्रमणकारियों को रोकने का न कोई प्रयास किया न इनसे अपने देश को बचाने के लिए कोई इंतजाम किया. यही वजह है भारत के पंजाब प्रदेश भारत पर हमले करने के लिए तुर्कों के आधार स्थल बन गए थे.
राजपूत शासनकाल में राजपूतों की कमजोर शासनकाल प्रणाली, जनता के साथ उचित तालमेल की कमी ही भारत में राजपूतों के पतन का कारण बना.
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