मेन्शेविक क्रांति के कारणों का वर्णन करें

रूस में मेन्शेविक क्रांति

1917 ई में रूस में दो क्रांतियाँ हुई थी. पहली क्रांति को मार्च की क्रांति तथा दूसरी क्रांति को नवंबर की क्रांति कहा जाता है. मार्च की क्रांति का स्वरूप राजनीतिक था जबकि नवंबर की क्रांति का स्वरूप सामाजिक था. दरअसल ये दोनों क्रांतियाँ अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही क्रांति के दो भाग थे. इन्हीं क्रांतियों को मेन्शेविक की क्रांति कहा जाता है. 

मेन्शेविक क्रांति

रूस में मेन्शेविक क्रांति के कारण

1. निरंकुश राजतंत्र

रूस के चार निरंकुश शासक थे. वह देवीय सिद्धांतों पर विश्वास करते थे. जार अलेक्जेंडर प्रथम एवं निकोलस प्रथम ने दमनकारी नीतियों का शासन करने के लिए दमनकारी नीतियों का सहारा लिया. जार एलेग्जेंडर द्वितीय सुधार योजना के पक्षपाती था. लेकिन उनके द्वारा सुधार कार्यों को सामंतों और जमींदारों ने विरोध किया. इधर जनता उनसे सुधारों की आशा करने लगी थी. लेकिन जार ने निरंकुश शासद को फिर से अपना लिया था. रूस-जापान युद्ध में रूस की करारी हार के बाद रूस के जनता में असंतोष की भावना पनपने लगी. इस वजह से जगह-जगह विद्रोह होने की संभावना बढ़ने लगी. लेकिन जार की निरंकुशता इतनी बढ़ गई कि उसने इन विद्रोह को निरंकुशता से दबा दिया. उसने 1905 में होने वाली परिस्थितियों को संभालने के लिए यह घोषणा की थी कि ड्यूमा के सदस्य जनता के द्वारा चुने जाएंगे. विद्रोह को शांत होने के बाद ड्यूमा को संसद का प्रथम सदन माना गया. लेकिन उसने प्रथम ड्यूमा को 1906 तथा द्वितीय ड्यूमा को 1907 में भंग कर दिया गया. मताधिकार सीमित कर दिए गए. परिणाम स्वरूप तृतीय ड्यूमा में प्रतिक्रियावादी बड़े जमींदार चुने गए जिसके कारण ड्यूमा नाम मात्र का प्रतिनिधि संस्था बनकर रह गए.

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2. कृषकों की दयनीय स्थिति

रूस एक कृषि प्रधान देश था, लेकिन फिर भी रूस में कृषकों की स्थिति बहुत दयनीय थी. इनको कृषि दास की संज्ञा दी जाती थी. उनकी स्थिति अर्द्धदास के सामान थी. उनके ऊपर कई प्रतिबंध लगे हुए थे. इसी वजह से किसानों ने 1902 ई. में पोल्टावा और हारकोव में विद्रोह किए. 1905 में भी किसानों ने कई जगह दंगे किए. इस वजह से 1906 और 1910 में भूमि संबंधित कुछ सुधार किए गए, लेकिन भूमिहीनों की समस्या पर गौर नहीं किया गया. इसी बीच लेनिन ने किसानों को समझाया कि हमें संसदीय गणतंत्र की आवश्यकता नहीं है हमें मध्य वर्गीय जनतंत्र नहीं चाहिए. हमें मजदूरों, कृषकों और सैनिकों के द्वारा संगठित सरकार के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार की सरकार नहीं चाहिए.

3. मजदूर वर्ग एवं पूंजीवाद

जब जार अलेक्जेंडर रूस पर शासन कर रहा था, तब रूस की औद्योगिकीकरण काफी तेजी से हो रहे थे. इस समय औद्योगिक संस्थानों संस्थानों के मालिक काफी धनी थे. इस वजह से पूंजीवाद को प्रोत्साहन मिला. पूंजीवाद का मुख्य उद्देश्य कम वेतन पर अधिक काम लेना था. अतः श्रमिक वर्ग से अधिक काम लिया जाता था और उनको कम वेतन दिया जाता था. जो किसान भूमिहीन है रोजगार की तलाश में औद्योगिक संस्थानों की ओर रुख कह रहे थे. इस कारण पूंजी पतियों को अपनी मनमानी करने का अवसर मिला और श्रामिकों से कम से मनमानी काम लेने लगे. इस समय कृषक और श्रमिक गंदी और तंग गली में रहते थे. उनके पास मजदूर संघ बनाने की क्षमता नहीं थी और इधर शासन भी उद्योगपतियों का ही साथ दे रहा था. इस वजह से श्रमिकों पर समाजवादी सिद्धांतों का व्यापक प्रभाव पड़ा और उन्होंने 1905 ईस्वी में संत पीटर्सवर्ग में श्रमिकों की सोवियत बना डाली. श्रमिक वर्ग में जारशाही के प्रति घोर असंतोष और घृणा बहने लगी. इसी वजह से जार की शासन का अंत करने के लिए वे क्रांतिकारियों का साथ देने लगे थे.

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4. अल्पसंख्यकों का विद्रोह

रूस में यहूदी, पोल, फिन तथा अन्य अल्पसंख्यक जातियां निवास करते थे. यह सभी जातियां रूसी साम्राज्य के अधीन थी. रूस के शासक इन जातियों का रूसीकरण करना चाहती थी. उनके शिक्षा का माध्यम फिर रूसी भाषा कर दिया गया था. उनको रूस के उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किए जाते थे. उनके बढ़े प्रभाव को देखकर रूसी प्रशासन ने इन जातियों का दमन करना आरंभ कर दिया. उन्होंने यहूदियों और आर्मेनियनों पर भीषण अत्याचार किए. इस वजह से इन जातियों में असंतोष और विद्रोह की भावना पनपने लगा. इस कारण 1905 ई में अल्पसंख्यक जातियों ने जॉर्जिया, पोलैंड और बाल्टिक प्रांतों पर विद्रोह किए. लेकिन रूसी प्रशासन ने इन विद्रोह को दबाने के लिए दमनकारी नीति का सहारा लिया. इस वजह से ये जातियां भी रूस के निरंकुश शासन का अंत करने के पक्ष पाती हो गए.

5. बुद्धिजीवी वर्ग का प्रभाव

मैनशेविक क्रांति के लिए बुद्धिजीवी वर्गों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा. टालस्टाय, वास्तोविस्की, तुर्गनेव, मैक्जिम, गोर्की और मार्क्स  जैसे बुद्धिजीवियों के विचारों में रूसी जनता को काफी प्रभावित किया. अतः जनता भी रूस की निरंकुश शासन का अंत करने की कोशिश करने लगी. रूस के जार ने इन विचारों को फैलने से रोकने का प्रयत्न किया लेकिन उनको सफलता नहीं मिली.

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6. यूरोपीय लोकतंत्र देशों का प्रभाव

प्रथम विश्वयुद्ध में रूस ने इंग्लैंड और फ्रांस का साथ दिया. इस युद्ध में इंग्लैंड और फ्रांस का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र की रक्षा करना था. इसी लड़ाई में रूस ने उसका साथ दिया. फ्रांस और इंग्लैंड के इस नीति का रूस की जनता पर गहरा प्रभाव पड़ा. उन्होंने इस बात को गौर किया कि रूस की सेना राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए लड़ रही है लेकिन उन्हीं के देश में निरंकुश शासन चल रहा है. अत: रूस की जनता के मन में भी अपने देश में लोकतंत्र की स्थापना करने की इच्छा प्रबल इच्छा होने लगी.

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7. जार निकोलस का व्यक्तित्व और भ्रष्ट शासन व्यवस्था

रूस का जार निकोलस द्वितीय बहुत बड़ा अंधविश्वासी और अयोग्य शासक था. वह दुर्बल एवं हठी स्वभाव का था. उनको दुनिया में हो रही घटनाओं का विश्लेषण और लोगों के व्यक्तित्व को समझने की कोई शक्ति नहीं थी. उसके ऊपर महारानी अलेक्जेंड्रा का विशेष प्रभाव था. वह उसका उसकी इच्छा के अनुसार शासन करता था. महारानी जो स्वेच्छाचारी  शासन के पक्षपाती थी, वह खुद रासपुटिन नामक एक साधु की कठपुतली बनी हुई थी. इसी के प्रभाव में आकर उसने प्रशासन के क्रियाकलापों में हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया. उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति में भी हस्तक्षेप करने लगी. इस वजह से प्रशासन में अस्त- व्यस्त का माहौल बन गया. इसके फलस्वरूप राजदरबार दो गुटों में बंट गया. एक गुट रानी के पक्ष में था तथा दूसरा इसके विरोध में. 1916 ईस्वी में राजपुटिन की हत्या कर दी गई. जार इससे अत्यंत दुख हुआ और उन्होंने हत्यारों का पता लगाने का आदेश दिए. इसके वजह से उसके संपूर्ण दरबार भी उसके विरोधी हो गए.

8. समाजवादी विचारधारा का प्रभाव

कृषकों की दयनीय स्थिति और सामान्य जनता की अभावग्रस्त परिस्थितियों ने रूस में समाजवादी प्रवृत्ति के विकास में बहुत ही बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया. रूस की जनता ने समाजवादी विचारों से प्रभावित होकर रूस में एक आंदोलन चलाया. आंदोलनकारियों ने अपना यह आंदोलन कृषकों की भूमि हीनता के विरुद्ध चलाया था.

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9. प्रथम विश्व युद्ध और आर्थिक संकट

प्रथम विश्वयुद्ध में रूस ने फ्रांस और इंग्लैंड की ओर से लड़ना स्वीकार किया. लेकिन जार तथा जारीना की विवेक हीनता तथा सेना के कार्य में उनके अनावश्यक हस्तक्षेप एवं कर्तव्य हीनता ने सेना का मनोबल काफी गिरा दिया. उन्होंने सेना के लिए आवश्यक सप्लाई पर ध्यान नहीं दिया. इस कारण सेना के पास युद्ध सामग्री का काफी अभाव रहा और रूस की सेना को घोर पराजय का मुंह देखना पड़ा. युद्ध के दौरान बाल्टिक सागर एवं काले सागर के बंद हो जाने के करण रूस दुनिया के अन्य भागों से अलग-थलग पड़ गया. उनके पास अनाजों की भारी कमी हो गई. महंगाई काफी बढ़ गई. कीमतें आसमान छूने लगी. अनाज कपड़े और इंधन इतने महंगे हो गए थे कि निर्धन लोगों के लिए उन्हें खरीद पाना असंभव हो गया. डबल रोटी खरीदने के लिए लोगों की लंबी कतारें लगने लगी. इस वजह से हड़ताल और उपद्रव होना शुरू हो गया और राजतंत्र के विरुद्ध विद्रोह आरंभ हो गया.

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