समुद्रगुप्त की उपलब्धियां
चंद्रगुप्त प्रथम के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना. गुप्तकालीन इतिहास में समुद्रगुप्त का शासनकाल का बहुत बड़ा महत्व है. समुद्रगुप्त ने भारतीय धर्म, संस्कृति आदि को एक राजनीतिक सूत्र में बांधने का काम को सफलतापूर्वक निभाया. चंद्रगुप्त के शासनकाल के विषय में अनेक शिलालेखों, स्तंभ लेख मुद्राओं, साहित्यिक स्रोतों से व्यापक जानकारी मिलती है. प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त प्रशासन काल की अत्यंत प्रमाणिक जानकारियां मिलती है. यह प्रशस्ति प्रयाग किले के अंदर स्थिर अशोक स्तंभ पर उत्कीर्ण है. यह प्रशस्ति समुद्रगुप्त की आत्मकथा के समान है जिसमें उसकी शासन काल की प्रमुख घटनाओं, विजयों आदि की जानकारियां बहुत सुंदर तरीके से वर्णन किया गया है. एरण अभिलेख में भी समुद्रगुप्त के विषय में जानकारी मिलती है.
समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त प्रथम के सबसे योग्य राजकुमार थे. उसकी प्रतिभाओं प्रभावित होकर चंद्रगुप्त प्रथम ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया. लेकिन समुद्रगुप्त को सिहासन आसानी से मिली नहीं. उसे अपने भाइयों के साथ संघर्ष करना पड़ा, जिसमें उसने विजय हासिल की और सिंहासन पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त की. सिहासन हासिल करने के बाद समुद्रगुप्त ने संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांधने की योजना बनाई. इस समय संपूर्ण भारत छोटे-छोटे राज्यों में बटा हुआ था. इन राज्यों को एक सूत्र में बांधने के लिए उन पर विजय प्राप्त करना आवश्यक था. समुद्रगुप्त एक महान योद्धा और कुशल सेनापति था. इसी कारण स्मिथ उसे भारतीय नेपोलियन कहा है. उसने अपनी योजना को पूरा करने के लिए अनेक राज्यों को जीतकर संपूर्ण आर्यवर्त व पूर्वी भारत पर गुप्तों का प्रभुत्व स्थापित किया. दक्षिण भारत के समस्त राजाओं को भी उसने अपना स्वामित्व स्वीकार करने पर विवश कर दिया.
समुद्रगुप्त की सैन्य उपलब्धियां
1. आर्यावर्त का प्रथम अभियान
समुद्रगुप्त ने अपनी दिगविजय का अभियान उत्तर भारत से शुरू किया. इस अभियान में उसने अच्युत, नागसेन, कोटकुलज तथा कई अन्य राजाओं पर जीत हासिल की. इतिहासकारों के अनुसार अच्युत अहिच्छत्र का राजा था. उनकी मुद्राएं नागवंशीय शासकों से मिलती है. इसी कारण कुछ विद्वान उसे नागवंशीय शासक कहते हैं. नागसेन एक नागवंशीय शासक था जिसकी राजधानी पद्मावती थी. कोटकुलज के विषय में मतभेद है. कुछ विद्वान इसे नाम न होकर वंश कहते हैं. उनका विचार है कि कोटकुलज-वंश पाटलिपुत्र का मगध वंश था. लेकिन ये मत भी स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इस समय पाटलिपुत्र पर पहले से ही गुप्तों का अधिकार था. इस संबंध में डॉ आर सी मजूमदार का मत ही उचित प्रतीत होता है. उसके अनुसार समुद्रगुप्त द्वारा पराजित कोटकुलज-वंश कन्यकुब्ज (कन्नौज) में शासन करता था.
2. दक्षिणापथ का अभियान
आर्यवर्त के अभियान में सफलता प्राप्त करने के बाद समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत की ओर अपना अभियान चलाया. दक्षिण भारत के 12 राज्यों पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा. समुद्रगुप्त ने दक्षिण के राज्यों के प्रति नीति निर्धारित करने में एक कुशल नीतिज्ञ होने का परिचय दिया. वह अपने साधनों और सामर्थ्य भली-भांति जानता था. उसे ये बात अच्छी तरह पता था कि इन राज्यों में स्थाई रूप से राज्य करना असंभव होगा. समुद्रगुप्त के दक्षिणी अभियान का उद्देश्य वहां के राज्यों को गुप्त साम्राज्य में मिलाना नहीं बल्कि वहां के राजाओं को अपनी प्रभुत्व स्वीकार कराना था. अतः समुद्रगुप्त ने सभी राजाओं को बंदी बनाने के पश्चात उनसे कुछ भेंट और राजस्व आदि लेकर संतुष्ट हो गया और उन्हें अपने-अपने राज्य में शासन करने के लिए मुफ्त कर दिया. समुद्रगुप्त के द्वारा दक्षिण में जीते हुए राज्यों में कोशल,महाकान्तार, कोराल, पिष्टपुर, कांची, वेंगी, देवराष्ट्र आदि प्रमुख थे.
3. आर्यावर्त का द्वितीय अभियान
समुद्रगुप्त ने अपने प्रथम आर्यावर्त अभियान में अच्युत, नागसेन, गणपतिनाग, कोटकुलज-वंश के राजाओं को पराजित किया था, लेकिन किसी पर उसने अधिकार नहीं किया. इतिहासकारों का मानना है कुछ समय बाद समुद्रगुप्त दक्षिण अभियान के समय उत्तर भारत के राजाओं ने फिर से खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया और समुद्रगुप्त के विरोध अपना सर उठाने शुरू कर दिए. कुछ विद्वानों के अनुसार आर्यवर्त के राजाओं ने मिलकर एक संग बनाया था जिससे कि समुद्रगुप्त का सामना आसानी से किया जा सके. आर्यावर के द्वितीय अभियान में समुद्रगुप्त ने 9 राजाओं को प्ररास्त किया. इस बार उसने इस उन्हें परास्त ही नहीं बल्कि उनका विनाश भी किया तथा उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया. इस बात की पुष्टि प्रयाग प्रशस्ति से होती है.
4. आटविक राज्यों पर विजय
प्रयाग प्रशस्ति से इस बात की जानकारी मिलती है कि समुद्रगुप्त ने आटविक राज्यों के शासकों को अपना दास बना लिया था. इस से ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त आटविक राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था. फ्लीट के अनुसार आटविक राज्य उत्तर में गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक फैले हुए थे. इस बात की पुष्टि एरण अभिलेख से भी होती है. इस अभिलेख के अनुसार ऐरिकेण-प्रदेश उसके अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत था. किंतु कुछ विद्वानों का मानना है कि आटविक राज्य आर्यावर्त और पूरी सीमांत प्रदेशों के बीच स्थित थे.
5. सीमावर्ती राज्य
प्रयाग प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त द्वारा उपरोक्त विजयों से प्रभावित होकर उसके सीमावर्ती राज्य ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली. प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार चंद्रगुप्त ने इन राज्यों से युद्ध नहीं की बल्कि वे समुद्रगुप्त से भयभीत होकर स्वयं ही उन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली. इन राज्यों में समतट, कामरूप, नेपाल, मालव, काक, डवाक आदि थे.
6. विदेशी राज्य
प्रयाग-प्रशस्ति में कुछ विदेशी शक्तियों का जिक्र किया गया है. प्रशस्ति के अनुसार इन शक्तियों ने आत्मसमर्पण ( आत्म निवेदन), कन्याओं को उपहार देने तथा गरूड़-मुद्रा (गुप्तों की राजकीय मुद्रा) से अंकित उनके आदेशों को अपने-अपने राज्यों में लागू करना स्वीकार किया. इससे स्पष्ट है कि इन राज्यों ने समुद्रगुप्त के साथ मैन्त्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया. इन विदेशी शक्तियों में शक, मुरूण्ड, सैंहल, सर्वद्वीपवासी तथा देवपुत्र आदि थे.
इन बातों से पता चलता है कि समुद्रगुप्त एक महान शासक हुआ करते थे. उसने अपनी विजयी अभियानों के द्वारा संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांधने की कोशिश की थी. उसने छोटे से राज्य से विशाल साम्राज्य की स्थापना की. उसने अपने दिग्विजय के बाद एक अश्वमेध यज्ञ भी किया था. इस अवसर पर उसने एक विशेष प्रकार की स्वर्ण मुद्राओं को प्रचलित किया था जिनके एक ओर घोड़ी की आकृति आकृति उत्कीर्ण है. उसके नीचे अश्वमेध पराक्रम लिखा हुआ है. दूसरी ओर राजाधिराज: पृथिवीमवजित्य दिवं जयति अप्रतिवार्य-वीर्य अर्थात् राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर अब स्वर्ग की जय कर रहा है, उसकी शक्ति और तेज अप्रतिम है, अंकित है.
इन्हें भी पढ़ें:
- मुगलकालीन इतिहास के स्रोत के रूप में अबुल फजल का वर्णन करें
- मुगलकालीन इतिहास के साहित्यिक स्रोतों का वर्णन करें
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Samundar Gupt ke Sainik abhiyan
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