सैयद बंधुओं की मुगल कालीन राजनीति में भूमिका का वर्णन करें

सैयद बंधुओं की मुगल कालीन राजनीति में भूमिका

1713 ई. से 1720 ई. तक सैयद बंधु अब्दुल्ला खां और हुसैन अली मुगल दरबार के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति हुआ करते थे. ये लोग हिंदुस्तानी दल के नेता थे और मुगल विरोधी कार्यों और अर्ध राष्ट्रीय हितों का नेतृत्व करते थे. सैयद बंधु हजरत मोहम्मद के वंशज थे. इनके पूर्वज सदियों पहले भारत के दोआब और मुज़फ़्फ़रपुर इलाकों में आकर बस गए थे. ये लोग अकबर की सेना में भर्ती हो गए थे और अनेक सैन्य अभियान में भाग ले चुके थे. अब्दुल्ला खां और हुसैन अली अबुल फरह के वंशज थे. अबुल फरह कुछ शताब्दी पहले मेसोपोटामिया से आया था और पाटलिपुत्र के समीप के प्रदेश में बस गया था. इसके पिता सईद मियां ने बीजापुर और अजमेर में सूबेदार के रूप में कार्य किया था. इसके कारण वह राजकुमार मुअज्जम के संपर्क में आया. औरंगजेब की मृत्यु के बाद हुए युद्धों में दोनों बंधुओ ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. सम्राट इससे खुश होकर इन सेवाओं के बदले उन्हें उचित रूप से पुरस्कृत किया और उन्हें 4000 का मनसबदार नियुक्त किया. बड़े भाई हसन अली को अब्दुल्ला खां की उपाधि भी दी. 1708 ई. में राजकुमार अजीम उल शान ने हुसैन अली को बिहार के एक प्रमुख पद पर नियुक्त किया और 1711 ई. में अब्दुल्ला खां को इलाहाबाद सूबे में अपना नायब नियुक्त किया कर दिया.

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राजकुमार अजीम उल शान के अनुग्रह के कारण 1713 ई. में इन बंधुओं ने अजीम उल शान के पुत्र फर्रुखसीयार की ओर से युद्ध में भाग लिया और जहांदार शाह को हराकर मार दिया और दिल्ली का मुकुट फर्रुखाबाद को दिल्ली की सिंहासन पर बैठा दिया. सम्राट फर्रुखसीयार ने सैयद अब्दुल्लाह खां को अपना वजीर नियुक्त किया और नवाब कुत्ब उल मुल्क, यामीन उद्दौला, सैयद अब्दुल्लाह खां बहादुर, जफर जंग, सिपहसालार और यार ए वफादार जैसे उपाधियों से विभूषित किया। छोटे भाई हुसैन अली को मीर बख्शी प्रयुक्त कर दिया और उसे उमाद तुल मुल्क, अमीरुल उमरा, बहादुर फिरोज जंग सिफह्सलार की उपाधियों से घोषित किया. प्रसिद्ध लेखक खाफी खां का मत है कि खाकर मत है कि फर्रुखसीयार की प्रथम भूल यह थी कि उसने अब्दुल्ला खां को अपना वजीर बना लिया और बाद में चाहकर भी उससे छुटकारा नहीं पा सका. सैयद बंधुओं को इतनी महत्वपूर्ण पद देने से तुरानी और ईरानी सरदारों की ईर्ष्या भड़क उठी और उन्होंने इस दोनों बंधुओं को अपमानित करने और हारने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी.

सैयद बंधुओं के विरोधी सरदारों में से सबसे सक्रिय मीर जुमला था जो सम्राट का कृपा पात्र था। उसने तुरानी सरदारों की सहानुभूति और समर्थन भी प्राप्त हासिल किया था। सम्राट फर्रुखसीयार इन शक्तिशाली दलों के हाथों का कठपुतली बनकर रह गया। इस कारण सम्राट फर्रुखसीयार ने मीर जुमला को अपनी ओर से राजाज्ञाओं पर हस्ताक्षर करने के नाम अनुमति दे दी। सम्राट ने कहा मीर जुमला के शब्द और हस्ताक्षर मेरे शब्द और हस्ताक्षर हैं। दूसरी ओर अब्दुल्ला खां का मीर जुमला को ये अधिकार देने के विषय में यह कहना था कि किसी को मनसब देना, पदोन्नति करना अथवा नियुक्ति करना प्रधानमंत्री के परामर्श के बिना नहीं हो सकती। इस विषय पर खाफी खां का भी मत है कि सम्राट का अपनी शक्ति को मीर जुमला को हस्तांतरण करना वजारत के पद के नियमों के विरुद्ध था.

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सम्राट फर्रुखसीयार और सैयद बंधुओं के मध्य विवाद 

विवाद तब सामने खुलकर आए जब सम्राट ने हुसैन अली को दक्कन का सूबेदार नियुक्त कर दिया। हुसैन अली अपने भाई को दरबार की षडयंत्रों के मध्य अकेला नहीं छोड़ना चाहता था और उसने सूबेदारी को अपने नयाब द्वारा कार्यान्वित करने के अनुमति मांगी अर्थात व स्वयं दिल्ली में रहेगा और उसका नयाब उसकी ओर से ढक्कन में कार्य करेगा। मीर जुमला के कहने पर सम्राट ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और हुसैन अली को ढक्कन जाने की आज्ञा दी। इस पर मतभेद इस सीमा तक बढ़ी कि सैयद सेहत बंधुओं ने दरबार आना बंद कर दिया और अपनी रक्षा के पूरे प्रबंध कर लिए। राजमाता के बीच-बचाव करने पर बाहरी शिष्टाचार पुन स्थापित हो गया और यह निश्चित हुआ कि हुसैन अली ही स्वयं ढक्कन की सूबेदारी संभालने जाएगा और मीर जुमला को भी इसी प्रकार पटना भेज दिया जाएगा.

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सम्राट फर्रुखसीयार इस ऊपरी बीच-बचाव से संतुष्ट नहीं था। अत: उसने गुजरात के सूबेदार दाऊद खां को कई संदेश भेजें कि वह हुसैन अली को मार डाले। उसके बदले उसे बहुत से पुरस्कार देने का वचन दिया। हुसैन अली को इस षड्यंत्र का पता चल गया और उसने दाऊद खां पर हमला करके उसे मार डाला. सम्राट फर्रुखसीयार ने फिर से हुसैन अली के विरुद्ध षड्यंत्र रचा। इस बार उसने शाहू और कर्नाटक के जागीरदारों को गुप्त संदेश भेजा कि हुसैन अली का आदेश न माने। हुसैन अली को फिर से सम्राट कि षड्यंत्र का पता चल गया और उसने दक्कन में अपने कार्य विधि ही बदल दिया और साथ ही दक्कन में मुगल शासन स्थापित करने के बजाय मराठों से मित्रता कर लिया। उसने शाहू से 1719 ई में एक संधि कर ली जिसके अनुसार मराठों को बहुत से रियायतें दिए गए। इसके बदले में मराठों से उसे दिल्ली सत्ता के लिए हो रहे संघर्ष में सैनिक सहायता देने का वचन दिया.

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इसी बीच सम्राट फर्रुखसीयार कश्मीर के इत्काद खां के प्रभाव में आ गया। इसीलिए सम्राट अब अब्दुल्ला खां के स्थान पर इत्काद खां को अपना वजीर बनाना चाहते थे। अत: इस योजना को अमल में लाने के लिए सम्राट फर्रुखसीयार ने ईद उल फितर के अवसर पर लगभग 70000 सैनिक एकत्रित कर लिए। अब्दुल्ला खां इस से डरकर अपनी सुरक्षा के लिए एक विशाल सेना एकत्रित कर ली। इस बात की चर्चा था कि अब्दुल्ला खां को बंदी बनाया जाएगा। ऐसी स्थिति में सम्राट और अब्दुल्ला खां की सेनाओं के बीच की टक्कर की संभावना बन गई थी।

जब हुसैन अली को अपने भाई और सम्राट के बीच हो रहे इस तनाव की स्थिति का पता चला तो वह मराठा सैनिकों को लेकर दिल्ली पर चढ़ गया।  उधर अब्दुल्ला खां ने भी युद्ध की पूर्ण व्यवस्था कर ली थी। उसने महत्वपूर्ण सरदारों को लालच देकर अपने साथ मिल लिया था। इन सरदारों में सरबुलंद खान, निजाम उल मुल्क और अजीत सिंह जैसे प्रमुख व्यक्ति भी शामिल थे। ऐसी स्थिति में सम्राट और सैयद बंधुओं के बीच टक्कर निश्चित थी। सम्राट इस स्थिति को देखकर घबरा गया और उसने समझौता करने के लिए सैयद बंधुओं  के द्वारा रखी गई सभी मांगों को मान लिया। इन मांगों में मुख्य रूप से सम्राट की समस्त अभिभावकता उनके हाथ में देना, सैयद बंधुओं के द्वारा नियुक्त व्यक्तिओं के हाथों में सभी दुर्ग देना, इत्काद खां को पद्चुत करना आदि शामिल थे। लेकिन इस पर भी इनके बीच इतना अविश्वास का माहौल बन गया था कि सैयद बंधुओं ने 28 अप्रैल 1719 ई को सम्राट का वध कर डाला.

सैयद बंधुओं का दिल्ली में प्रभुत्व

सम्राट फर्रुखसीयार के वध के पश्चात दिल्ली पर सैयद बंधुओं का प्रभुत्व पूरी तरह से स्थापित हो गया। इसके बाद उन्होंने रफी-उद -दरजात को सम्राट बना दिया। इस सम्राट की मृत्य जल्द ही क्षरोग से हो गई। फिर उन्होंने रफी-उद-दौला को सम्राट बना दिया। उसकी भी पेचिश से मृत्यु हो गई। फिर उन्होंने जहान शाह के 18 वर्षीय पुत्र मुहम्मद शाह को सिंहासन पर बैठा दिया। अब दिल्ली की सत्ता पर सैयद बंधुओं का प्रभुत्व इतना था कि राजमहल के सारे कर्मचारी और सैनिक उन्हीं के थे। इस नवयुवक सम्राट  का राजकीय कार्यों में कोई दखल नहीं था.

सैयद बंधुओं की मुगल कालीन राजनीति में भूमिका

खाफी खां इस विषय में लिखता है कि सम्राट के चारों ओर रहने वाले पदाधिकारी अब्दुल्ला के ही व्यक्ति थे। वे सम्राट को एक प्रकार से बंदी सब बना रखे थे।  यदि सम्राट बाहर कहीं जाता तो यही लोग उसे घेरे रहते हैं और उसे लेकर जाते अथवा वापस लेकर आते। राजमाता ने भी इस विषय पर लिखा है कि सम्राट को केवल नमाज पढ़ने के लिए जाने की अनुमति थी अन्यथा पूरी तरह सैयद बंधुओं के अधीन था। सैयद बंधु हिंदुओं के समर्थन पर भी निर्भर थे। वे हिन्दू समुदाय के एक साधारण गल्ले के व्यापारी को राजा की उपाधि से विभूषित किया और उसे शासन तथा राज्य के बहुत से अधिकार दे दिए। लेखक खाफी खां इस हिन्दू व्यापारी के विषय में कहता है कि उसकी हस्तक्षेप दीवानी तथा कानूनी सभी मामलों में थी। यहां तक की काजियों तथा अन्य पदाधिकारी की नियुक्ति में भी उसी का हाथ होता था। उसके प्रभाव के कारण दूसरे पदाघिकारियों की अनदेखी होने लगी और उसी की बात का पालन होने लगा। दो राजपूत महाराजा, अजमेर के जयसिंह तथा जोधपुर के अजीत सिंह भी सैयद बंधुओं के संग थे। उसके अलावा मराठी भी उनके समर्थक थे। सम्राट फर्रुखसीयार की मृत्यु के पश्चात जरिया कर को फिर से हटा दिया गया और अहमदनगर के सूबेदार अजीत सिंह ने गो हत्या बंद करवा दी. इस प्रकार दिल्ली की सत्ता पर सैयद बंधुओं का प्रभुत्व पूरी तरह स्थापित हो गया।

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