अकबर की धार्मिक नीति का वर्णन करें

अकबर की धार्मिक नीति

अकबर की धार्मिक नीति में बहुत बड़ा महत्व है. अकबर के शासनकाल में उसकी धार्मिक नीति उसके प्रशासनिक व्यवस्था की मुख्य केंद्र थी. प्रारम्भ में अकबर एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था अत: वह भी बाबर और हुमायु की कट्टर धार्मिक नीति का पालन करता रहा,  लेकिन कालांतर में कई कारणों से उसके कट्टर धार्मिक विचारों में भारी परिवर्तन होता चला गया. उसके धार्मिक विचारों में बदलाव होने के कारण वह अन्य धर्मों के प्रति भी उदार हो गया.

अकबर की धार्मिक नीति

अकबर की धार्मिक नीति में बदलाव होने का कारण 

1. आनुवंशिक प्रभाव  

अकबर के पिता हुमायुँ और उसके दादाजी बाबर, इस्लामी अनुयायी थे. लेकिन उनके विचारों में सल्तनत कालीन शासकों की तरह कट्टरता नहीं थी. अकबर की मां हमीदा बानू, जो की हुमायुँ की पत्नी थी, वो इस्लाम के शिया समुदाय से सम्बन्ध रखने वाली थी. वह बहुत ही उदार विचारों वाली महिला थी. अत: अकबर को ये गुण अनुवांशिक रूप से भी प्राप्त हुआ था. इसीलिए ये गुण उनके विचारों में भी झलकने लगा.

2. शिक्षकों का प्रभाव 

अकबर को शिक्षा, शिया और सुन्नी दोनों समुदायों से सम्बन्ध रखने वाले शिक्षकों से मिला था. उसके शिक्षक अब्दुल लतीफ़ शिया तथा मुनीम खां सुन्नी समुदाय से सम्बन्ध रखते थे. इन दोनों शिक्षकों का स्वभाव काफी उदार था. ऐसे उदार विचार वाले शिक्षकों से शिक्षा ग्रहण करने के कारण अकबर के विचारों में भारी परिवर्तन हुआ.

अकबर की धार्मिक नीति

 3. विभिन्न धार्मिक नेताओं का प्रभाव 

अकबर, सूफी संप्रदाय के शेख मुबारक, पारसी दस्तूर महयार, जैन भानुचन्द्र, विजयसेन और हिन्दू धर्म के नेता आचार्य पुरुषोत्तम और देवा जैसे विभिन्न धर्मों के धार्मिक नेताओं के साथ संपर्क में था. उनके साथ लगातार संपर्क में रहने के कारण अकबर के अंदर धार्मिक चिंतनशीलता का विकास होना शुरू हुआ. इसके आलावा  अकबर उनके विचारों से काफी प्रभावित हुआ. इस कारण अकबर के विचारों में बदलाव होता चला गया.

4. भक्ति आंदोलन 

भक्ति आंदोलन के भाग लेने वाले विभिन्न धर्म के विद्वानों ने अपने-अपने धर्मों में व्याप्त आडम्बरों और कुरीतियों की कटु आलोचना की और उसका घोर विरोध किया. इन धार्मिक विद्वानों के द्वारा इन आडम्बरों और कुरीतियों का विरोध करने के कारण समाज में इसका व्यापक प्रभाव पड़ा. इसके परिणामस्वरूप तत्कालीन समाज में काफी बदलाव आने लगा. अकबर पर भी भक्ति आंदोलन का भी बहुत बड़ा प्रभाव हुआ. समाज में हो रहे व्यापक बदलावों से वह भी अछूता नहीं रह पाया. अत: उनके विचारों में भी बदलाव आना शुरू हो गया.

अकबर की धार्मिक नीति

5. राजपूतों का प्रभाव 

शासक बनने के बाद अकबर ने राजपूतों के साथ संबंध स्थापित किए. इसके लिए उसने अपने नीति में बदलाव किया था. इस नीति के परिणामस्वरुप अकबर ने राजपूत राजकुमारियों से विवाह किए. उसने राजपूतों को अपने दरबार में उच्च पद प्रदान किए हुए. वह लगातार राजपूतों के संघर्ष में रहा संपर्क में रहता था. इस कारण उनकी विचारधाराओं का प्रभाव अकबर पर पड़ा। इसके कारण अकबर के मन में धार्मिक सहिष्णुता की भावना का संचार हुआ.

6. मौलवियों का संकीर्ण विचारधारा 

अकबर के शासन काल के समय तत्कालीन मौलवी अत्यंत छोटी-छोटी बातों को लेकर परस्पर आपस में झगड़ते रहते थे. उनमें योग्य एवं महान व्यक्तियों के समान धैर्य और सहनशीलता बिल्कुल नहीं थी. इस बात की पुष्टि बदायूनी की कथन से भी होती है. उसने लिखा है कि धार्मिक वाद-विवाद में मुल्ला-मौलवी तलवार निकाल लेते थे तथा सांप्रदायिक वैमनस्य इस सीमा तक पहुंच जाता था कि वे एक-दूसरे को ही काफिर कहने लगते थे. अकबर इन लोगों इस प्रकार के व्यवहार दो देखकर अत्यंत दुखी था.

7. राजनीति कारण 

अकबर भारत में मुगल वंश का स्थायी शासन की स्थापना करना चाहता था. उसके इस उदेश्य के लिए अकबर को राजपूत शासकों का सहयोग बहुत ही जरूरी था. अखबर ये बात अच्छी तरह जानता था कि उसे राजपूतों का सहयोग तभी प्राप्त हो सकता है जब वह धार्मिक रूप से सहिष्णु हो. अत: अकबर के लिए आवश्यक था कि यदि उसे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूर्ती करना हो तो सबसे पहले उसे धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाना होगा। अकबर द्वारा धार्मिक सहिष्णुता की नीति को अपनाने का यह भी महत्वपूर्ण कारणों में से एक यह भी था.

अकबर की धार्मिक नीति

8. धार्मिक नेता बनने की महत्वकांक्षा 

अकबर राजनीतिक रूप से सर्वोच्च पद पर था. वह धार्मिक क्षेत्र में भी सर्वोच्च पद पर विराजमान होना चाहता था ताकि राजनीतिक क्षेत्र में धार्मिक नेताओं का हस्तक्षेप बंद हो जाए. इसके लिए उसे मौलवियों का विरोध तथा सहिष्णुता की नीति को अपनाना जरूरी था. अत: अकबर ने अपनी महत्वकांक्षाओं की पूर्ती करने के लिए धार्मिक सहिष्णुता की नीति को अपनाया और साथ ही उसने मौलवियों का भी विरोध करना शुरू कर दिया था.

9. धार्मिक चिंतन 

अकबर घंटों अकेले बैठकर सांसारिक और धार्मिक विषयों पर मनन चिंतन करते रहता था. इन बातों की पुष्टि बदायुनी और अबुल फजल दोनों ने अपनी रचनाओं में किया है. सांसारिक और धार्मिक विषयों पर अत्यधिक मनन चिंतन करने के कारण अकबर के विचारों में काफी परिवर्तन आने लगा. इस कारण वह धार्मिक सहिष्णुता की नीति पर चलने लगा.

अकबर की धार्मिक नीति

10. इबादतखाना का प्रभाव 

अकबर ने 1575 ई. में फतेहपुरसीकरी नामक स्थान में एक इबादतखाना का निर्माण कराया था. इस इबादतखाना में धार्मिक विषयों पर विचार विमर्श किया जाता था. शुरुआत में इसमें केवल इस्लाम धर्म के लोग ही विचार-विमर्श करते थे लेकिन उसमें पारस्परिक वैमनस्य की भावना को देखकर अकबर ने 1578 ई. में इस इबादतखाने का दरवाजा हर धर्म के लोगों के लिए खोल दिया. अकबर के इस कदम के बहुत अच्छे परिणाम हुए. इसके कारण अकबर को प्रत्येक धर्म तथा उनके विद्वानों के विषय में जानने का अवसर मिला. इससे उसे विभिन्न धर्मों की अच्छाइयों के विषय में जानकारी मिली और अकबर को इस बात का ज्ञात हुआ कि सत्य केवल इस्लाम ही नहीं वरन अन्य धर्मों में भी है. अतः उसके मन में अन्य धर्मों के प्रति रूचि और सहनुभूति जागृत हुई.

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इन्हें भी पढ़ें:

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  2. भक्ति आंदोलन के उदय के क्या कारण थे?
  3. भारत पर अरबों के आक्रमण का वर्णन कीजिए

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