वैदिक कालीन राजनीतिक व्यवस्था का वर्णन करें

वैदिक कालीन राजनीतिक व्यवस्था

वैदिक काल में राज्य को राष्ट्र के नाम से पुकारा जाता था. इसका प्रधान राजा होता था. ऋग्वेद में राष्ट्र के पर्यायवाची के रूप में गण शब्द का भी उल्लेख मिलता है. राष्ट्र और गण शब्दों से संघात्मक शासन प्रणाली का संकेत मिलता है. जिस राजा के अधीन कई राज्य होते थे, उसे सम्राट कहा जाता था.

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1. राजा

राजा के पद की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, इस विषय में स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है. डॉ. नारायण चंद्र बंधोपाध्याय के अनुसार इसका कारण युद्ध की आवश्यकताएं थी. डॉक्टर बेनी प्रसाद के अनुसार ईश्वर द्वारा राज्य की उत्पत्ति किए जाने के पश्चात युद्ध की आवश्यकताओं ने उसे दृढ़ कर दिया. डॉ. के.पी. जयसवाल के अनुसार आर्यों ने इसे द्रविड़ों से ग्रहण किया. डॉ. वी. एम. आप्टे के अनुसार यह आर्यों की पैतृक प्रणाली का परिणाम था. यह विचार अधिक मान्य है कि युद्ध में सफल नेतृत्व और सैनिक संगठन की एकता को स्थापित रखने के लिए राजा की आवश्यकता बहुत पहले ही बन गया था. विभिन्न वर्णनों से यह प्रतीत होता है कि देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध शुरू हुई तो देवताओं की पराजय होने लगी. तब उन्होंने एकत्रित होकर एक राजा चुना और उसने युद्ध का नेतृत्व किया और सफलता प्राप्त की. इस प्रकार राजा की उत्पत्ति हुई.

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राजा अपने राज्य और कबिले का प्रधान होता था और जिस राजा के अधीन कई राज्य होते थे उसे सम्राट कहा जाता था. यद्यपि उस काल में किसी के द्वारा भी सम्राट पद प्राप्त किया गया हो यह असंभव है, क्योंकि उस काल में राजा भी कबिले के प्रधान से श्रेष्ठ स्तर के नहीं थे. राजा का अधिकार पैतृक होता था. परंतु कहीं-कहीं राजा के चुनाव अथवा अत्याचारी राजा को हटाए जाने के उदाहरण में प्राप्त होते हैं. राजा के अधिकारों पर कोई कानूनी अंकुश न था, परंतु व्यवहारिक में उसके अधिकार एवं स्वयं के कर्तव्य उसके बड़े अधिकारी और जन समितियों के प्रभाव के कारण सीमित होते थे. राजा के प्रमुख कर्तव्य अपनी प्रजा के जीवन सम्मान और संपत्ति की सुरक्षा करना, उसके लिए युद्ध करना, राज्य विस्तार करना, न्याय करना, अपराधी को दंड देना आदि था. जनता राजा की आज्ञा का पालन करती थी और उसे कर देती थी. परंतु राजा भूमि का स्वामी न था. भूमि संपूर्ण कबीले की संयुक्त संपत्ति थी. उस समय अधिकांश राज्य छोटे थे, परंतु तब भी राजा बहुत शान और सुख से रहते थे. उनका राज्यभिषेक किया जाता था. उनके बड़े-बड़े निवास स्थान और महल होते थे तथा वह सुंदर और कीमती वस्त्र एवं आभूषण धारण करते थे.

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2. राजतंत्र और कुलीन तंत्र

कहीं-कहीं ऐसे भी थे जिन्हें गणराज्य कहा जा सकता है. ऐसे राज्यों में जनता शासन करने वालों की को स्वयं चुनती थी. ऐसे शासक गणपति अथवा जेष्ठ कहलाते थे. कुछ ऐसे राज्य में थे जहां कुछ व्यक्ति मिलकर शासन करते थे. ऐसे शासन तंत्र को कुलीनतंत्र कहा जाता था. परंतु ऐसे गणतंत्र और कुलीनतंत्रों की संख्या बहुत कम थी.

3. प्रमुख शासन अधिकारी

पुरोहित, सेनानी और ग्रामणी राजा के अधिकारी थे. पुरोहित राजा का परामर्शदाता, धार्मिक कार्य करने वाला तथा अन्य सभी कार्यों में राजा का मुख्य सहायक था. उसका बहुत सम्मान था. वशिष्ठ और विश्वामित्र सदृश पुरोहितों के उदाहरण इस पद के सम्मान और प्रभाव को प्रकट करते हैं. सेनापति सेना का प्रधान होता था. उसका कार्य सैनिक संगठन की देखभाल करना और राजा की अनुपस्थिति में सेना का संचालन करना था. ग्रामणी, गांव में राजा का प्रमुख सैनिक व असैनिक अधिकारी था. राजा दूत और गुप्तचर भी रखते थे जो जनता और अधिकारियों के गतिविधियों को देखने के लिए नियुक्त किए जाते थे.

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4. न्याय और दंड व्यवस्था

कानूनों की कोई विधिवत व्यवस्था नहीं थी क्योंकि ऋग्वेद में न्याय व्यवस्था के विषय में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है. फिर भी न्याय व्यवस्था के प्रमुख पदाधिकारी राजा और पुरोहित ही होते थे. न्याय का उद्देश्य सुधारात्मक और आदर्शात्मक प्रतीत होता है. ऋग्वेद में विधि तथा रीति नियमों के लिए धर्मन शब्द प्रयोग प्रयोग किया गया है. परंपरागत रिवाजों को ही कानून की संज्ञा दी जाती थी और उन्हीं के आधार पर न्याय किया जाता था. न्याय करना राजा का प्रमुख कर्तव्य माना जाता था. पंचों के द्वारा भी निर्णय लिए जाते थे. ऋग्वेद में चोरी, डकैती, लूटपाट की अपराधों का उल्लेख मिलता है. रात के समय गाय बैलों की चोरी सामान्य अपराध माना जाता था. जुआखोरी और बेईमानी का भी उल्लेख मिलता है. अपराधियों को दिया जाता था तथा अपमानित किया जाता था. अथवा जुर्माना देने के लिए बाध्य किया जाता था. हत्या करने वालों को उसका मूल्य क्षतिपूर्ति के रूप में चुकाना पड़ता था. हत्या के बदले हत्यारे को 100 सिक्के देने पड़ते थे. हत्यारे को शरदाय तथा जिनकी हत्या होती है, उसे शरदम कहा जाता था. अपराधी को सूली पर टांग देना सामान्य दंड था. उग्र तथा जीव गृभ पुलिस अधिकारी होते थे.

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5. सैन्य संगठन

साधारण सैनिक पैदल चलते थे. परंतु अधिकारी रथों पर बैठकर युद्ध करते थे. रथों में दो, तीन या चार घोड़े जोते जाते थे. तीर, कमान, तलवार और भाला उनके मुख्य हथियार थे. सैनिक कवच और तांबे की टोपी भी पहनते थे. सैनिक किलों को नष्ट करने हेतु एक गतिशील मशीन का प्रयोग करते थे.

6. सभा और समिति

इस काल की शासन व्यवस्था में सभा और समिति का एक महत्वपूर्ण स्थान था. यह संस्था शासन की एक लोकतंत्रिय भाग थी, परंतु इसकी उत्पत्ति, संगठन और कार्यों के बारे में विद्वानों में मतभेद है. डॉ. एन. सी. बंदोपाध्याय ने “समिति” को संपूर्ण जन की सभा और “सभा” को कुछ विशिष्ट सम्मानित व्यक्तियों का परिषद बताया है. डॉ. केपी जयसवाल ने “समिति” को गांव की प्रतिनिधि सभा और “सभा” को समिति की देखरेख करने वाली कुछ चुने हुए व्यक्तियों की केंद्रीय परिषद बताया है. डॉ. अल्तेकर ने “समिति” केंद्रीय सरकार की राजनीतिक परिषद और “सभा” को गांव की सभा माना है. डॉ. डी.एम. आप्टे ने “समिति” को एक बड़े आकार की जनसभा कहा है तथा “सभा” को छोटी और कम महत्व की परिषद माना है.

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परंतु विद्वानों का बहुमत इस पक्ष में है कि “समिति” आर्यों की एक विशाल आकार की जन सभा थी. जबकि “सभा” राजा की सहायता के लिए छोटी परिषद थी. इस प्रकार यह कहना उपयुक्त नहीं कि राजा प्रत्येक अवसर पर उनकी सलाह लेता था और राज्य संबंधित सभी महत्वपूर्ण निर्णय उसके द्वारा लिए जाते थे. बल्कि यह कहना उपयुक्त है कि समय-समय पर राजा के द्वारा उनसे सलाह ली जाती थी और राजा उनकी बैठकों में उपस्थित होता था. इस प्रकार साधारण स्थिति में राजा उन के कार्यों में अधिक हस्तक्षेप नहीं करता था. परंतु महत्वपूर्ण अवसरों पर उनका हस्तक्षेप अवश्य प्रभावपूर्ण होता था. इसमें संदेह नहीं किया जा सकता.

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